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122 122 122 122

ये अकुलाहटें मेरे मन की कहूँ क्या
तड़प बेकरारी नयन की कहूँ क्या

उठे है धुआँ सा दिलो जाँ से मेरे
जली है ज़मीं भी चमन की कहूँ क्या

चला जा रहा हूँ सफ़र में मैं पैहम
नहीं इंतिहा है थकन की कहूँ क्या

तरसता रहा उम्र भर फूल को वो
ये आराइशें इस कफ़न की कहूँ क्या

मुझे लूटकर घर तलक छोडा़ उसने
वफ़ा देखिये राहजन की कहूँ क्या

निशां बह गया वक्त की मौज के साथ
अदा रह गई बांकपन की कहूँ क्या

-मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by khursheed khairadi on February 25, 2015 at 9:13am

चला जा रहा हूँ सफ़र में मैं पैहम
नहीं इंतिहा है थकन की कहूँ क्या

तरसता रहा उम्र भर फूल को वो
ये आराइशें इस कफ़न की कहूँ क्या

आदरणीय शिज्जु शकूर जी, बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर अभिनन्दन |

 

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 25, 2015 at 6:51am
मुझे लूटकर घर तलक छोडा़ उसने
वफ़ा देखिये राहजन की कहूँ क्या ।
एक और सुन्दर ग़ज़ल, बधाई आदरणीय शिज्जु शकूर जी, सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 25, 2015 at 1:53am

आदरणीय शिज्जु भाई जी सुन्दर और उम्दा ग़ज़ल हुई है   शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाए 

Comment by maharshi tripathi on February 24, 2015 at 9:49pm

इस गजल पर आपको हार्दिक बधाई ,,आ. शिज्जु "शकूर" |

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