For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

मैं एक हिंदुस्तानी औरत हूँ - परी ऍम. 'श्लोक'

आदमी क्या खूब कोशिश करते हैं
गम मिटाने के लिए...
ले कर जाम हाथों में अपने
रोज़ कहते हैं
कि वो टूटे हैं बिखरे हैं बेहाल बेहद हैं
रोज़ कहते हैं
करता हूँ नशा सबकुछ भूल जाने के लिए
फूंकता हूँ सिगरेट हर फ़िक्र धुंए में उड़ाने के लिए
सोचती हूँ कि
कितनी तरकीब हैं आदमी के पास
अपने आपको सुकून पहुँचाने के लिए
मगर
मेरे पास अपने दर्द में असीर रहने के सिवा
कोई राह राहत की नज़र नहीं आती
मैं ये शौक भी अता नहीं फरमा सकती
हाँ! मुझे अक्सर ये याद रहता है
कि मैं एक हिंदुस्तानी औरत हूँ !!!

सर्वाधिकार सुरक्षित : परी ऍम.'श्लोक'

मौलिक व अप्रकाशित

Views: 917

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on February 26, 2015 at 7:01pm

एक हिन्दुस्तानी औरत की सीमायें ... सुन्दर सुघड़ रचना! व्यंग्य, भी गर्व भी अभिनन्दन !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on February 26, 2015 at 7:00pm

इस रचना की अंतिम पंक्ति ही इसका सार है जो रचना को उंचाइयां देती है ...बहुत सुन्दर वाह ...आपकी पहली रचना पढ़ी आगे भी लिखती रहिये |हार्दिक बधाई परी जी 

Comment by Pari M Shlok on February 26, 2015 at 9:53am
Dr. Vijai Shanker जी आपके निवेदन का सम्मान करती हूँ ..किन्तु मैंने नज़्म की विधा में लिखा है हिंदी का यह शब्द प्रयोग नही कर सकती ...उर्दू का कोई शब्द होता तो ज़रुरु बदल देते ...कृपया अन्यथा न लें व मार्गदर्शन करते रहे ..धन्यवाद
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 26, 2015 at 12:15am
हाँ! मुझे अक्सर ये याद रहता है
कि मैं एक हिंदुस्तानी औरत हूँ !!!
व्यंग भी है, संस्कृति भी है, धरोहर भी है , गर्व भी है। आपकी इस छोटी सी पंक्ति में एक पूर्ण दृष्टि है ,जीवन शैली है , आपको इसके लिए बहुत बहुत बधाइयां आदरणीय परी एम श्लोक जी , सादर।
नोट - एक निवेदन है , यदि अक्सर को आप " प्रायः " या " सदैव " से विस्थापित करना चाहें तो संभतः इन पंक्तियों के भाव ( मूल्य भी ) और बढ़ जाएंगे।
Comment by Pari M Shlok on February 25, 2015 at 2:28pm
आपका आभार krishna mishra जी ... अच्छा लगा आपको भी OBO पर देख कर यहाँ बहुत ही उच्च कोटि के रचनाकार हैं इनके सहयोग से और बेहतर किया जा सकता है साहित्य में ...आपका स्वागत है !!
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on February 25, 2015 at 1:41pm

आपको पढ़ना हमेशा से ही सुकून देता है..obo से मै आपके माध्यम से ही परिचित हुआ हूँ..आपका बहुत बहुत आभार!

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on February 25, 2015 at 12:18pm

लाजवाब रचना आदरणीय परी ऍम श्ल्लोक जी ........सच कहा आपने....

कितनी तरकीब हैं आदमी के पास
अपने आपको सुकून पहुँचाने के लिए
मगर.........

हाँ! मुझे अक्सर ये याद रहता है
कि मैं एक हिंदुस्तानी औरत हूँ !!!.......

जहाँ आदमी अपने शौक के लिए कई बहाने तलाश कर लेता है वहां औरत मान मर्यादा के सम्मुख अक्सर अपने आप में ही घुटती रहती है !

Comment by Pari M Shlok on February 25, 2015 at 10:41am
khursheed khairadi जी व जितेन्द्र पस्टारिया जी आपकी टिप्पणी का स्वागत व हार्दिक आभार
Comment by khursheed khairadi on February 25, 2015 at 10:35am

आदरणीया परी जी, सुन्दर प्रस्तुति है |सादर अभिनन्दन |

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 25, 2015 at 10:33am

बहुत सुंदर लिखा, आपने आदरणीय. बधाई

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Sushil Sarna posted blog posts
Thursday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

देवता क्यों दोस्त होंगे फिर भला- लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२ **** तीर्थ जाना  हो  गया है सैर जब भक्ति का यूँ भाव जाता तैर जब।१। * देवता…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey posted a blog post

कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ

२१२२ २१२२ २१२२ जब जिये हम दर्द.. थपकी-तान देते कौन क्या कहता नहीं अब कान देते   आपके निर्देश हैं…See More
Nov 2
Profile IconDr. VASUDEV VENKATRAMAN, Sarita baghela and Abhilash Pandey joined Open Books Online
Nov 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदाब। रचना पटल पर नियमित उपस्थिति और समीक्षात्मक टिप्पणी सहित अमूल्य मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु…"
Oct 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"सादर नमस्कार। रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर अमूल्य सहभागिता और रचना पर समीक्षात्मक टिप्पणी हेतु…"
Oct 31
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेम

दोहा सप्तक. . . सागर प्रेमजाने कितनी वेदना, बिखरी सागर तीर । पीते - पीते हो गया, खारा उसका नीर…See More
Oct 31
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय उस्मानी जी एक गंभीर विमर्श को रोचक बनाते हुए आपने लघुकथा का अच्छा ताना बाना बुना है।…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय सौरभ सर, आपको मेरा प्रयास पसंद आया, जानकार मुग्ध हूँ. आपकी सराहना सदैव लेखन के लिए प्रेरित…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"आदरणीय  लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार. बहुत…"
Oct 31

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)
"आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी, आपने बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है। यह लघुकथा एक कुशल रूपक है, जहाँ…"
Oct 31

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service