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घास उगने लगी है मेरी कब्र पर

212 212 212 212
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जिन्दगी थी बहुत ही सुहानी मेरी
मौज मस्ती कभी थी निशानी मेरी
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एक ज़लसा हुआ था मेरे गाँव में
मिल गयी उसमें परियों की रानी मेरी
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सिलसिला चल पडा फिर मुलाकात का
मुझको लगने लगी जिन्दगानी मेरी
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बात अबकी नहीं है मेरे दोस्तो
ये कहानी बहुत ही पुरानी मेरी
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एक साज़िश रची थी रक़ीबों ने फिर
और साज़िश में शामिल दिवानी मेरी
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मैं तो मरने लगा था मेरी जान पर
ये हकीकत भी उसने न जानी मेरी
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एक बारात आई मेरे गाँव में
हो गयी जिन्दगी पानी-पानी मेरी
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घास उगने लगी है मेरी कब्र पर
दास्तां बन चुकी है कहानी मेरी 
 

उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित

Views: 650

Comment

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Comment by umesh katara on February 24, 2015 at 5:55am

Saurabh Pandey जी आभार

Comment by umesh katara on February 24, 2015 at 5:55am

khursheed khairadi जी आभार

Comment by umesh katara on February 24, 2015 at 5:54am
Comment by umesh katara on February 24, 2015 at 5:47am

maharshi tripathi जी आभार

Comment by umesh katara on February 24, 2015 at 5:47am

gumnaam pithoragarhi जी आभार 

Comment by umesh katara on February 24, 2015 at 5:46am

Hari Prakash Dubey जी आभार

Comment by Hari Prakash Dubey on February 23, 2015 at 11:55pm

घास उगने लगी है मेरी कब्र पर
दास्तां बन चुकी है कहानी मेरी ....सुन्दर रचना आदरणीय उमेश कटारा जी , बधाई आपको !
 

Comment by gumnaam pithoragarhi on February 23, 2015 at 6:52pm

उमेश जी ,उम्दा ग़ज़ल हुई है ,,,,, बधाई स्वीकारें.................

Comment by maharshi tripathi on February 23, 2015 at 5:40pm

क्या बात है!!!!मार्मिक वर्णन किया है आपने आ. उमेश कटारिया जी,,,हार्दिक बधाई | 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 23, 2015 at 2:11pm

भाई जी

आपकी अन्य गजले कटार है तो इसे कटारा  कहेंगे i बहुत रवानी है इन शेरो में i प्रवाह है , गति है , सारल्य है i चूंकि दास्ताँ और कहानी लगभग पर्यायवाची है इसलिये  आ०  सौरभ जी की सम्मति पर ध्यान अवश्य दें i सादर i

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