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ग़ज़ल -- दिल है सीने से लापता शायद

दिल है सीने से लापता शायद
इश्क़ मुझको भी हो गया शायद

जिन्दगी उलझनों का नाम हुई
ले रहा इम्तिहाँ ख़ुदा शायद

बिन कहे वो मिरी करे इमदाद
ज़ेह्न में उसके कुछ पका शायद

हर घड़ी वो जो मुस्कुराता है.
जख़्म उसका कोई हरा शायद

झूठ को झूठ अब भी कहता मैं
मुझ में बाक़ी है बचपना शायद

रात भर करवटें बदलता हूँ
बोझ पापों का बढ़ गया शायद

कौन करता लिहाज़ अपनों का
जह्र रिश्तों में अब घुला शायद

नर्म लहज़े में आप बात करें
काम कुछ मुझसे आ पड़ा शायद

शेख ये सोच कर नमाज पढ़े
वक़्त-ए-आखिर हो कुछ नफा शायद

आप की दाद ने मुझे बख़्शा
शे'र कहने का होंसला शायद

किस लिये तू 'दिनेश' ख़ौफजदा
जबकि रब तेरा रहनुमा शायद


-- दिनेश कुमार ०९/०२/२०१५

( मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by Samar kabeer on February 9, 2015 at 9:53pm
जनाब दिनेश कुमार जी,आदाब ,आपकी ग़ज़ल पढ़कर दिल बाग़ बाग़ हो गया,हर शैर अपनी जगह मुकम्मल है,मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 9, 2015 at 3:38pm

झूठ को झूठ अब भी कहता मैं
मुझ में बाक़ी है बचपना शायद......वाह! बहुत सुंदर. बधाई आदरणीय दिनेश जी

Comment by gumnaam pithoragarhi on February 9, 2015 at 2:27pm

वाह बहुत खोबसूरत ग़ज़ल हुई है हर एक शेर कमाल वाह बढ़िया

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