माँ तू सुनती क्यों नहीं
तूँ बुनती क्यों नहीं
इक नई सी जिंदगी
वो घुटनों पे चलना
वो आँखों को मलना
वो मिटटी को खाना
बिना सुर के गाना
वो चिल्ला के कहना
मुझे रोटी देना
आज फिर चूल्हे पे पानी
तूँ पकाती क्यों नहीं
माँ तूँ सुनती क्यूँ नहीं
वो तेरी हथेली
में कितनी पहेली
वो मेरा कसकना
वो तेरा सिसकना
वो ममता की छाया
मुझे याद आया
वो मुस्कान तेरी
वो पेशानी मेरी
आज फिर से बोशा
सजाती क्यूँ नहीं
माँ तू सुनती क्यों नहीं
तूँ बुनती क्यों नहीं
इक नई सी जिंदगी
मौलिक एवं अप्रकाशित
विजय कुमार चौबे मनु
Comment
सुंदर रचना, बहुत सुन्दर प्रस्तुति है, आदरणीय विजय जी. बधाई आपको
आदरणीय विजय जी बहुत सुन्दर प्रस्तुति है बहुत बहुत बधाई आपको
Aadarniya vijay ji,
Maan ko samparpit ye rachna bhawon aut prot hai. Hardik badhai.
माँ को हृदय से याद किया आपने i सादर i
सुंदर रचना, आदरणीय विजय जी. बधाई आपको
बहुत सुन्दर रचना ... हार्दिक बधाई
bahut hi sunder rachna ke liye dhanyawad
माँ तू सुनती क्यों नहीं
तूँ बुनती क्यों नहीं
इक नई सी जिंदगी
सुंदर भाव भाई जी ,माँ नाम के महाकव्य के बारे में जो कहा जाए कम है|फिर भी अपने अनुभवों के आधार पर माँ की ये वन्दना सम्मानीय है |
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