कर नहीं सकता मैं करतब क्या करूं
हो गई ताज़ा ग़ज़ल अब क्या करूं
कोई न पूछे तो लब ख़ामोश हैं
ओर जो कोई पूछ ले तब क्या करूं
तेरी ना एहली पे जब उठठे सवाल
मेरे कहने का है मतलब क्या करूं
फिर जिहालत का अंधेरा छा गया
तू ही बतलादे मिरे रब क्या करूं
अपनी मरज़ी से तो जी सकता नहीं
मुझको लिखकर दीजिये कब क्या करूं
आख़िरत में सुर्ख़रू करना मुझे
लेके इस दुनिया का मनसब क्या करू
.
समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरणीय कबीर साहब उम्दा ग़ज़ल हुई है सभी अशहार दिल को छू गये हैं आदरणीय दिनेश भाई की तरह मुझे भी ''कोई न पूछे तो लब ख़ामोश हैं'' की तक्ती थोड़ी संशय में डाल रही है |कृपया मार्गदर्शन करावें |इन अशहार पर विशेष दाद |
फिर जिहालत का अंधेरा छा गया
तू ही बतलादे मिरे रब क्या करूं
अपनी मरज़ी से तो जी सकता नहीं
मुझको लिखकर दीजिये कब क्या करूं
सादर अभिनन्दन
आदरणीय समीर कबीर साहब, आपकी कोई पहली ग़ज़ल इस मंच पर प्रस्तुत हुई है. आपका आपकी रचना के साथ हार्दिक स्वागत है. एक अच्छी कहन के साथ प्रस्तुत हुई इस ग़ज़ल के लिए हृदयतल से बधाई स्वीकारें.
एक महत्त्वपूर्ण बात जो मैं आपकी टिप्पणियों के हवाले से कहना चाहूँगा. विश्वास है, आप उस पर तथा इस ओर गंभीरता से ध्यान देंगे.
साहब, यह मंच परस्पर ’सीखने-सिखाने’ का मंच है. इस क्रम में आपकी प्रस्तुतियों को कई तरह के पाठक मिलेंगे. थोड़ा एहतियात बरतते हुए अपनी प्रतिक्रियाएँ दें.
दूसरी बात, इस मंच पर बर्ताव और परस्पर सम्बोधन की एक विशेष परिपाटी है. अपेक्षा है कि आप उसका अनुपालन करेंगे. चूँकि आप नये सदस्य हैं, अतः इस ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना आवश्यक समझा जा रहा है. बाकी आपकी समझ और आपकी प्रस्तुति का सदा स्वागत है. विश्वास है, आपकी उपस्थिति मंच के सदस्यों की रचनात्मकता को और प्रगाढ़ करेगी.
शुभ-शुभ
आदरणीय, एक अच्छी गज़ल के लिये आपको बधाइयाँ ।
में को मै और हें को हैं कर लीजियेगा , ये भाषा की अज्ञानता नहीं है , केवल टाइपिंग की गलती है । गज़ल का मज़ा कम कर ही है टाइपिंग की गलती ।
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