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याद तेरी है कोई दल दल क्या
डूबता जाता हूँ मैं ;पल पल क्या

हर क़दम पे मिले फ़ना आशिक़
है तुम्हारी गली भी मक़्तल क्या

हो गए चूर सपने बच्चों के
खा गई बाप को ये बोतल क्या

सच ओ ईमाँ की बात करता है
उसको कहता जहां ये पागल क्या

ढूंढ ही लेते हैं मुझे ये ज़ख़्म
ज़ख़्म भी बन गए है गूगल क्या

मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 1, 2014 at 5:40am

आअदरनीय गुमनाम भाई , बढिया गज़ल कही है , हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

हर क़दम पे मिले फ़ना आशिक़
है तुम्हारी गली भी मक़्तल क्या - --- लाजवाब !

Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 31, 2014 at 4:51pm

आदरणीय गुमनाम जी बहुत शानदार ग़ज़ल ..आखिरी शेर का तो जवाब नहीं .ढेरों बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 30, 2014 at 3:06pm

बहुत बढ़िया i  नये प्रतीक व् बिम्ब  i  याद और दलदल ---- वाह i

Comment by umesh katara on October 30, 2014 at 9:36am

वाहहहहह वाहहहहह क्या बात है मित्र

Comment by Saarthi Baidyanath on October 29, 2014 at 11:11pm

क्या बात ..बहुत खूब !

Comment by gumnaam pithoragarhi on October 29, 2014 at 4:05pm

धन्यवाद दोस्तों,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, कोशिशों को आप सराहते है तो ऊर्जा मिलती है

Comment by भुवन निस्तेज on October 29, 2014 at 11:24am
बहुत खूब आदरणीय भाई गुमनाम पिथौरागढ़ी खास कर बोतल वला शेर तो क्या कहना....
Comment by Dr. Vijai Shanker on October 28, 2014 at 9:48pm

ढूंढ ही लेते हैं मुझे ये ज़ख़्म
ज़ख़्म भी बन गए है गूगल क्या

बहुत बढ़िया , आदरणीय गुमनाम पिथौरागढ़ी जी।

Comment by gumnaam pithoragarhi on October 28, 2014 at 4:22pm

dhanywaad dosto.............aap ne saraha koshish safal hui

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 28, 2014 at 11:10am

वाह जी ..क्या बात 

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