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ग़ज़ल - इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ? // --सौरभ

२१२२  १२१२  २२

इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ?
पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या ?"

घुल रहा है वजूद तिल-तिल कर
हो रहा है हमें ये अव्वल क्या ?

गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ?
बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ?

अब उठो.. चढ़ गया है दिन कितना..
टाट लगने लगा है मखमल क्या !

मित्रता है अगर सरोवर से
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या !

अब नये-से-नये ठिकाने हैं..
राजधानी चलें !.. ये चंबल क्या ?

चुप न रह.. बोल तो.. अब आईने.. !
बोल, मुझसा कोई है विह्वल क्या ?
****************
-सौरभ
****************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by rajesh kumari on October 28, 2014 at 9:45am

इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ? 
पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या ?" ----बहुत सुन्दर मतला 

वाह्ह आज एक अलग सी हिंदी ग़ज़ल पढने को मिली आ० सौरभ जी ,सभी शेर उम्दा बने हैं  

मित्रता है अगर सरोवर से 
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या ! --ये शेर भी बहुत ख़ास लगा 

बहुत बहुत बधाई आपको 

Comment by Shyam Narain Verma on October 27, 2014 at 11:55am

".वाह क्या बात है ,,,,,,,,,,,,,खूबसूरत गजल के लिए आपको हार्दिक बधाई, सादर "


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 27, 2014 at 11:50am

ग़ज़ल पर समय देने के लिए हार्दिक धन्यवाद भाई जितेन्द्रजी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 27, 2014 at 11:49am

आदरणीय गोपाल नारायनजी, हार्दिक धन्यवाद.

आपने तो मुझे बोझ ही दिया, भाईजी.. .. :-)))


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 27, 2014 at 11:48am

जिन विन्दुओं की ओर इंगित करते शेरों को आपने मान दिया है, आदरणीया वन्दनाजी, आपके इंगित वस्तुतः मेरे लिए भी तोषदायी हैं.

हार्दिक धन्यवाद


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 27, 2014 at 11:39am

आदरणीय सुशील भाईजी, आपकी सदाशयता के प्रति हृदय से आभारी हूँ.. 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 27, 2014 at 10:34am

बेहद सुंदर सामयिक गजल कही है आपने, आदरणीय सौरभ जी. हर एक शेर आज का बखान करता हुआ, बहुत-बहुत बधाई आपको

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 26, 2014 at 8:38pm

इसे कहते हैं हिन्दी गजल  ! आदरणीय क्या काफिया ?क्या रदीफ़ ? आखिरी शेर ने तो  जान ही निकाल ली i बेहतरीन i सादर i

Comment by vandana on October 25, 2014 at 6:20pm

घुल रहा है वजूद तिल-तिल कर 
हो रहा है हमें ये अव्वल क्या ? 

गीत ग़ज़लें रुबाइयाँ.. मेरी ? 
बस तुम्हें पढ़ रहा हूँ, कौशल क्या ? 

मित्रता है अगर सरोवर से 
छोड़िये सोचते हैं बादल क्या ! 

और मतला तो वाकई आदरणीय सुशील सर के कहे अनुसार निश्शब्द कर रहा है पर यह कमाल आप जैसे गुणीजन ही कर सकते हैं सादर नमन इस ग़ज़ल को 

Comment by Sushil Sarna on October 25, 2014 at 2:02pm

इससे बढ़कर कोई अनर्गल क्या ?
पूछिये निर्झरों से - "अविरल क्या ?"
निशब्द हूँ सर आपके इस रदीफ़ के कठिन निर्वाह पर। ऐसा लफ्ज़ ढूंढना फिर भावों में बांधना और अंत तक उसकी महक को बरकरार रखना आप जैसे गुणीजनों के ही बस की बात है। नतमस्तक हूँ आपकी इस कृति पर। हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं आ. सौरभ जी।

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