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चूस हाथों के अंगूठे नन्हा बचपन सो गया

२१२२    २१२२     २१२२      २१२ 

 

वो कहें सागर  में मिलकर आज दरिया खो गया 

हम कहें सागर से दरिया मिल के सागर हो गया 

 

सोच कुछ तेरी जुदा है सोच कुछ मेरी अलग

सोचिये सोचों का अंतर आज  कैसा हो गया

 

करते दंगों पे सियासत रहनुमा इस देश के 

देख कर अपनों की लाशें नन्हा बचपन रो गया 

 

दर्द पहले ही हज़ारों जिन्दगी में दोस्तों 

फिर नया ये दर्द क्यूँ जग जिन्दगी में बो गया 

 

माँ रही मशगूल जश्नों में यूं सारी रात ही 

चूस हाथों के अंगूठे नन्हा बचपन सो गया 

 

दर्द जब जब भी बढा है दिल हुआ बेचैन है 

ढाल शेरो में ग़मों को दिल ये ग़ज़लें पो गया 

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 4, 2014 at 2:22pm

आदरणीय हरिवल्लभ जी रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए दिल से धन्यवाद saadar

Comment by harivallabh sharma on September 2, 2014 at 5:23pm

बहुत सुन्दर भावपूर्ण गज़ल ..

"माँ रही मशगूल जश्नों में यूं सारी रात ही 

चूस हाथों के अंगूठे नन्हा बचपन सो गया"....बहुत प्रभावी...वाह.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 2, 2014 at 9:24am

आदरणीय राकेएश जी , भुवन जी , आदरणीया महिमा जी आप के इन स्नेहिल शब्दों के लिए दिल से धन्यवाद सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 2, 2014 at 9:23am

आदरनीय गोपाल सर ..आपका स्नहे और मार्गदर्शन हम जैसे सीखने वालों के लिए प्रेरणा मंत्र का काम करता है ये स्नेह यूं ही मिलता रहे कामना के साथ सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 2, 2014 at 9:22am

आदरणीय जीतेन्द्र जी रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 2, 2014 at 9:21am

आदरणीय संतलाल सर ..बस ऐसे ही आप सभी विद्वतजनो का मार्गदर्शन मिलता रहे ऐसी कामना के साथ सादर 

Comment by Santlal Karun on September 1, 2014 at 5:06pm

आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्र जी,

अच्छी ग़ज़ल और ख़ास तौर से इस शेर की नवीनता आकृष्ट करती है--

"माँ रही मशगूल जश्नों में यूं सारी रात ही 

चूस हाथों के अंगूठे नन्हा बचपन सो गया"

.. हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ ! 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 31, 2014 at 12:00pm

बेहतरीन गजल प्रस्तुति आदरणीय डा.आशुतोष जी. बहुत-२ बधाई आपको

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 29, 2014 at 12:11pm

आशुतोष जी

बहुत अच्छी गजल कही आपने i

माँ रही मशगूल जश्नों में यूं सारी रात ही 

चूस हाथों के अंगूठे नन्हा बचपन सो गया 

Comment by Dr. Rakesh Joshi on August 28, 2014 at 11:10pm

आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्रा जी,
इस शानदार ग़ज़ल के लिए बधाई.
सादर,
डॉ. राकेश जोशी

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