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आज़ादी और दीवाने (लघुकथा)

बाजार से गुजरते हुए उसने एक बहेलिए के पास पिंजरे में कैद कुछ पंछी देखे। बहेलिए को पैसे देकर उसने पिंजरा खोल दिया। पिंजरा खुलते ही एक पंछी फुर्र से उड़ता आसमान की तरफ लपका। अनायास कुछ चीलें आई और उन्होनें उस पंछी को दबोच लिया। उड़ने के लिए तैयार बाकी पक्षी सहम कर पिंजरे में दुबक गए।

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Dr.Prachi Singh on August 18, 2014 at 9:33pm

मुझे  India fights back का एक episode याद आ गया.... जहां ईंट भट्टे में बंधुआ मजदूरों को कुछ ऐसे ही सहमा कर रखा जाता था की वो आज़ाद होने की हिम्मत ही नहीं करते थे 

क्या दहशत होती है ये.... इसे महसूस कर पा रही हूँ आपकी इस लघुकथा में 

हार्दिक बधाई इस मर्मस्पर्शी लघुकथा पर 

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 18, 2014 at 7:55pm

मर्माहत करती हुई लघुकथा!

Comment by Ravi Prabhakar on August 18, 2014 at 2:26pm

आदरणीय श्याम नारायण, गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, विनय जी एवं विजय जी
लघुकथा के अनुमोदन हेतु धन्यवाद।

Comment by Ravi Prabhakar on August 18, 2014 at 2:24pm

आदरणीय शुभ्रांशु भाई जी,
लघुकथा में छुपे ‘कथा तत्त्व‘ के मर्म का अनुमोदन करने हेतु धन्यवाद।

Comment by Shubhranshu Pandey on August 18, 2014 at 11:49am

आदरणीय रवि जी. 

पंछियों के पिंजडॆ़ से उडने या उडाने को ले कर कई कथाएं और कवितायें हैं लेकिन इस उनमुक्त उडान के दंश को बखुबी शब्दों में सजोया है.इन परिंदो और चीलों  के बिम्ब ने समाज के कई रुपों को सामने रखा है. सुन्दर कथा.  

सादर. 

Comment by vijay nikore on August 18, 2014 at 3:23am

भावपूर्ण लघु कथा। बधाई, आदरणीय रवि जी।

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 17, 2014 at 6:18pm

कुछ की कुर्बानियों की नीव पर ही आजादी की इमारत खडी हुई है | सुंदर लघु कथा के लिए बधाई 

Comment by विनय कुमार on August 16, 2014 at 11:29pm

बहुत अच्छी लघुकथा , आज़ादी की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है , बहुत बहुत बधाई..

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 16, 2014 at 3:30pm

आदरणीय रवि जी

शहादतें ही वे नीवे है जिनपर आजादी की इमारत लिखी जाती है पर हर कोई तो दीवाना नहीं होता i

सुन्दर कथा i बधाई हो i

Comment by Shyam Narain Verma on August 16, 2014 at 10:10am
" अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई ................. "

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