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याद  की   छाई  घटाये  चाँद  उनमे  खो  गया  I

रोते-रोते थक गया  तो नील  नभ पर सो गया  I

 

ह्रदय सागर की लहर पर ज्वार  का छाया नशा

स्वप्न  के  टूटे   किनारे  चांदनी   में धो  गया  I

 

पर्वतो के श्रृंग पर  है  शाश्वत  हिम  का  मुकुट

मौन  के  सम्राट का  भी  ह्रदय  प्रस्तर हो गया  I

 

देखकर  इस  देह के  पावन मरुस्थल का धुआं

एक  सहृदय रेत  में  कुछ आंसुओ को बो गया  I

 

कल्पना के कलश में करुणा  अभी 'गोपाल' की

ढल न पाई  कवि  ह्रदय में दर्द  आकर रो गया  I

 

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment

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Comment by Savitri Rathore on June 26, 2014 at 7:39pm

अतिसुन्दर ग़ज़ल ! बधाई हो।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 26, 2014 at 7:15pm

देखकर  इस  देह के  पावन मरुस्थल का धुआं

एक  सहृदय रेत  में  कुछ आंसुओ को बो गया  I

 

कल्पना के कलश में करुणा  अभी 'गोपाल' की

ढल न पाई  कवि  ह्रदय में दर्द  आकर रो गया 

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , बहुत सुन्दर भाव पूर्ण शे र हुये हैं , हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on June 26, 2014 at 4:59pm

देखकर  इस  देह के  पावन मरुस्थल का धुआं

एक  सहृदय रेत  में  कुछ आंसुओ को बो गया  I

 

कल्पना के कलश में करुणा  अभी 'गोपाल' की

ढल न पाई  कवि  ह्रदय में दर्द  आकर रो गया  I


सहज भाव कोमल . सुन्दर रचना … हर पंक्ति में गहन भाव भरा हुआ और गेय
बधाई
भ्रमर ५

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 26, 2014 at 1:14pm

आदरणीय निकोर जी

आपका आशिर्वाद मेरे लिए सौभाग्य की बात है i  आपका बहुत-बहुत असभर i

Comment by vijay nikore on June 26, 2014 at 12:15pm

//कल्पना के कलश में करुणा  अभी 'गोपाल' की

ढल न पाई  कवि  ह्रदय में दर्द  आकर रो गया //

अति सुन्दर ! बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 26, 2014 at 12:02pm

आदरणीय विजय प्रकाश शर्मा जी

आप का बहुत बहुत आभार i  आपकी टिप्पणी ने मेरा मनोबल बढ़ाया i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 26, 2014 at 11:56am

अनुपमा बाजपेयी जी

आपकी सद्भावना का आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 26, 2014 at 11:54am

आदरणीय सरना जी

आप जैसे कुशल कवि से प्रोत्साहन मेरा सौभाग्य है i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 26, 2014 at 11:52am

आदरणीय विजय शंकर जी

आपकी सहृदयता का आभारी हूँ i

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 25, 2014 at 6:42pm

नील नभ पर सो गये बादलों में खो गये तुम
आई करुणा गोपाल की तो कहाँ हो गये गुम?

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