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किताबें कहती हैं/गज़ल/कल्पना रामानी

मात्रिक छंद

हमसे रखो न खार, किताबें कहती हैं।

हम भी चाहें प्यार, किताबें कहती हैं।


 घर के अंदर एक हमारा भी घर हो।  

भव्य भाव संसार, किताबें कहती हैं।


 बतियाएगा मित्र हमारा नित तुमसे,  

हँसकर  हर किरदार, किताबें कहती हैं।


 खरीदकर ही साथ सहेजो, जीवन भर,

लेना नहीं उधार, किताबें कहती हैं।


 धूल, नमी, दीमक से डर लगता हमको,

रखो स्वच्छ आगार, किताबें कहती हैं।


 कभी न भूलो जो संदेश मिले हमसे,

ऐसा हो इकरार, किताबें कहती हैं।


 सजावटी ही नहीं सिर्फ हमसे हर दिन,

करो विमर्श विचार, किताबें कहती हैं।


 सैर करो कोने कोने की खोल हमें,

चाहे जितनी बार, किताबें कहती हैं। 


 रखो ‘कल्पना’ हर-पल हमें विचारों में,

उपजेंगे सुविचार, किताबें कहती हैं।

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 19, 2014 at 1:40pm

महनीया\

मुझसे बतानेमे त्रुटि हुई  दरअसल प्रथम पंक्तियों का अंत  कही  यगण , कही सगण से कही नगण से, कही तगण से है i यह कन्फुजन  आप ही दूर कर सकती है  महनीया  i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 19, 2014 at 1:26pm

मह्नीया

मै इसे गजल समझ बैठा पर आपने इसे मात्रिक छंद लिखा है i 22 मात्रा   वाले प्रचलित छंद में इसका विन्यास नहीं दीखता i ११ मात्रा वाले छ न्दो की नजर से देखे तो प्रथम  ११ मा त्राए अहीर छन्द की  लगती है क्योंकि अंत में  जगण है  i इसी प्रकार बाद की ११  मात्राये

भव छंद  की लगती है क्योंकि  इनका अंत यगण से है i  कृपया द्विविधा दूर करने की कृपा करे और हमारी जानकारी के लिए छंद  से अवगत कराये i मुझसे कोई त्रुटि हुयी हो तो छमा भी करे i आदरणीया i

Comment by Sushil Sarna on June 19, 2014 at 12:55pm

हमसे रखो न खार, किताबें कहती हैं।

हम भी चाहें प्यार, किताबें कहती हैं … वाआआअह आदरणीय कल्पना जी वाह किताबों पर लिखी आपकी ये रचना वास्तव में काबिले तारीफ़ है … अव्यक्त भावों को समेटे इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें।

Comment by vijay nikore on June 19, 2014 at 12:48pm

संदेश देती इस सुन्दर गज़ल के लिए बधाई, आदरणीया कल्पना जी।

Comment by वेदिका on June 19, 2014 at 3:06am
हर बंद एक सार्थक सन्देश लेकर प्रस्तुत हुआ है। दूसरे बंद में मानो किताबों ने लाइव ही लाइब्रेरी बनाने के लिए अनुनय किया हो।
और उधार न लेने के बदले जो नकद खरीदने की बात को जिस भाव में बोला गया है, उसे महसूस करके स्फूर्त मुस्कान आ जाती है चेहरे पे।
मै स्वयं किताबों से बेहद प्रेम करने वाली लडकी हूँ, इसलिए आपकी यह रचना मुझे मेरे बेहद करीब लगी।
एक संग्रहणीय गीत पर आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 18, 2014 at 12:48pm

महनीया

गजल तो सुन्दर है ही i  इसका सन्देश बड़ा व्यापक है  i बधाई हो i

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 18, 2014 at 12:43pm

बहुत सुंदर, आदरणीया कल्पना जी. हार्दिक बधाई स्वीकारें

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 18, 2014 at 11:18am

बहुत सुन्दर, आज के अंतरजाल प्रेम की दुनियां में किताबों का मित्र बनने की प्रेरणा देती सशक्त रचना. बधाई स्वीकारें आ० रामानी जी. .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 18, 2014 at 10:57am

बहुत खूब आ० कल्पना दी , हार्दिक बधाई .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 18, 2014 at 9:55am

धूल, नमी, दीमक से डर लगता हमको,

रखो स्वच्छ आगार, किताबें कहती हैं।---वाह्ह्ह अशआरों के  माध्यम से सही सीख दी है आपने आ० कल्पना दी ,बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति बधाई आपको |

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