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भूल थी - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122    2122    2122    212
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बचपने  में  चाँद  को  रोटी  समझना  भूल थी
कमसिनी में एक कमसिन से लिपटना भूल थी

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तात  ने डाटा  किताबें  पढ़, मुहब्बत  में न पड़
तात से  इस बात  पर मेरा  झगड़ना  भूल  थी

**

कोख में जब मात ने  पाला न माना कुछ उसे
इक कली  के द्वार पर  माथा रगड़ना भूल थी

**

मिट गया वो, पात ने कर ली हवा से प्रीत जब
बेखुदी  में  डाल से  उसका  बिछड़ना  भूल थी

**

लूटता इज्जत भ्रमर नित दोष उसको  कौन दे
कह रहे सब क्यों कली का यूं सवरना भूल थी

**

मढ़  दिया  है  दोष  सर  पे  राहमारी  देखिए
राह से उसकी ‘मुसाफिर’ का गुजरना भूल थी

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 13, 2014 at 9:56am

आदरणीय भाई सौरभ जी ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 5, 2014 at 2:35am

एक अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई. कई शेर उद्धृत किये जा सकते हैं.

शुभेच्छाएँ

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 22, 2014 at 7:21am

आदरणीय भाई आशुतोष जी , ग़ज़ल की प्रशंसा और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 21, 2014 at 2:20pm

मिट गया वो, पात ने कर ली हवा से प्रीत जब
बेखुदी  में  डाल से  उसका  बिछड़ना  भूल थी..आदरणीय लक्ष्मण जी ..इस बेहतरीन ग़ज़ल के इस शेर के लिए बिशेष तौर से दाद कबूलें ..सादर 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 20, 2014 at 11:05pm

आदरणीय भाई बृजेश जी उत्साहवर्धन के लिए आभार .

Comment by बृजेश नीरज on February 20, 2014 at 7:09pm

बढ़िया ग़ज़ल हुई है! आपको हार्दिक बधाई!

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 20, 2014 at 1:04pm

आदरणीय भाई गिरिराज जी , आपका कहना उचित है ,इस पर मैंने अधिक मंथन भी नहीं किया था . इन त्रुटियों कि और ध्यान दिलाकर मार्गदर्शन के लिए हार्दिक धन्यवाद . राहमारी राहजनी के ही सन्दर्भ में प्रयोग किया गया है . अन्य जगहों पर संशोधन किया है उस बारे में राय देकर मार्गदर्शन करें .पुनः आभार .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 20, 2014 at 12:57pm

आदरणीय  आशीष भाई प्रशंसा के लिए आभार .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on February 18, 2014 at 8:18pm

अच्छा प्रयास है आदरणीय लक्ष्मणजी बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 18, 2014 at 5:32pm

आदरणीय लक्ष्मण भाई , शिल्प के लिहाज़ से ग़ज़ल अच्छी कही है , पर कुछ कमियाँ रह गई हैं , मेरी समझ मे --मतले मे ,           भर जवानी से  जो आप कहना चाह रहे हैं वो बात कह नही पा रहे हैं ॥

लूटता  इज्जत  पतंगा  दोष  उसको  कौन  दे
कह रहे सब क्यों कली का यूं सवरना भूल थी   ---- इस शे र मे बात  तार्किक नहीं लग रही है ------- पतंगा और कली  बात नही जम रही है , कली के साथ भौंरा  या पतंगा के साथ शमा , क्या सही नही लगेगा ॥ कली और पतंगा बे मेल नही है क्या ?

राहमारी , ये शब्द सही है ग़लत नही कह सकता , मै रहजनी  के अर्थ मे समझ पाया हूँ ॥

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