दीप बन अँधेरी राहो पे जलने लगा हूँ !
धवल चंद्रमा सा चमकने लगा हूँ !
चीर कर सीना निशा का ,
जग के तम को हरने लगा हूँ !
ना दे सहारे को अब कोई बैसाखी !
खुद के पैरो पे जो चलने लगा हूँ !
लडखडाहट का दौर गुजर चुका है !
अब तो मैं सँभलने लगा हूँ !
धो चुका हूँ आँचल के दाग सारे !
फूलों सा अब महकने लगा हूँ !
बंदिशों के पिंजरे तोड़ सारे !
मुक्त परिंदे सा चहकने लगा हूँ !
जला कर इर्ष्या और कपट को !
ज्वालामुखी सा दहकने लगा हूँ !
अब प्रायश्चित कर पाप का !
उत्थान की राह चलने लगा हूँ !
छोड़कर असत्य और झूठ को !
कीचड़ में कमल सा खिलने लगा हूँ !
------डॉ अनुराग सैनी -----
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
रचना मे मजबूत भावनाएं पिरोईं !!
बधाई !!
दीप बन अँधेरी राहो पे जलने लगा हूँ !
धवल चंद्रमा सा चमकने लगा हूँ !
चीर कर सीना निशा का ,
जग के तम को हरने लगा हूँ !
ना दे सहारे को अब कोई बैसाखी !
खुद के पैरो पे जो चलने लगा हूँ !
बहुत सुंदर , सकारात्मक भाव, बधाई स्वीकारे आदरणीय अनुराग जी
आदरणीय अनुराग जी बहुत सुंदर रचना बधाई आपको ।
आप सभी के स्नेह और मार्गदर्शन के लिए आभार!
आदरणीय ..इस सुंदर रचना पर मेरी हार्दिक बधायी स्वीकार करने का कास्ट करें
आदरणीय अनुराग जी बहुत सुन्दर रचना इस हेतु बधाई स्वीकारें बाकी आदरणीय भ्राताश्री एवं आदरणीय विन्ध्येश्वरी जी ने कह ही दिया है उनकी कहन का सज्ञान करें.
आदरणीय अनुराग जी, सुंदर भावपूर्ण रचना हेतु बधाइयाँ, "चूका" को "चुका" करलें तो ? (केवल एक सलाह)
बधाई अनुरागजी अपने भावों को सुंदर ढ़ंग से पिरोने के लिये ।
भावों को बखूबी शब्दों में पिरोया है आपने आदरणीय अनुराग जी.... बधाई हो...
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