जिंदा है आदमी यहाँ उम्मीदों के सहारे
मझधार फंसी कश्ती भी लगती है किनारे
देखे नहीं गए हैं कभी मुझसे दोस्तों
यारों की आँखों बहते हुए अश्कों के धारे
पागल भी, शराबी भी, दीवाना भी कहा है
जिसको लगूँ मैं जैसा मुझे बैसे पुकारे
नजरें टिकी हुई हैं जमाने की चाँद पर
हम गाफिलों को आज भी प्यारे हैं सितारे
इंसान गर न बोता कभी शूल यहाँ पर
होते नहीं फिर ऐसे यहाँ आज नज़ारे
इंसान ही जब बन गया भगवान् जहाँ का
इंसानों को मुश्किल से यहाँ कौन उबारे ?
नर-नारी बाल-बृद्ध सभी का है एक सवाल
अहसान फरामोशों क्यूँ भला नित नए नारे
“यह रचना मौलिक और अप्रकाशित है”
डॉ आशुतोष मिश्र , निदेशक ,आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी बभनान,गोंडा, उत्तरप्रदेश मो० ९८३९१६७८०१
Comment
आदरणीय ओ बो ओ पर आपका हार्दिक स्वागत है, प्रयास हेतु आपको हार्दिक बधाई किन्तु शिल्प और कत्थ कसावट और श्रम की मांग कर रहे हैं, कई जगह बात स्पष्ट नहीं हो पा रही है. इस पंक्ति हेतु विशेष तौर पर बधाई स्वीकारें.
नजरें टिकी हुई हैं जमाने की चाँद पर
हम गाफिलों को आज भी प्यारे हैं सितारे
अच्छा लिखा है आपने युही लिखते रहिये
आभार
प्रथम रचना का हार्दिक अभिनन्दन!
इंसान ही जब बन गया भगवान जहाँ का,
इंसानों को मुश्किल से यहाँ कौन उबारे ?
बहुत खुब !!!
जिंदा है आदमी यहाँ उम्मीदों के सहारे
मझधार फंसी कश्ती भी लगती है किनारे
ओबीओ पर आपकी पहली रचना देखकर बहुत खुशी हुई। मेरी बधाई स्वीकार करें।
सादर!
सुन्दर भाव अभिव्यक्ति की लिए हार्दिक बधाई डॉ आशुतोष मिश्र जी
बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ
इंसान ही जब बन गया भगवान् जहाँ का
इंसानों को मुश्किल से यहाँ कौन उबारे ?
बहुत ही सुंदर पंक्तियाँ ! बधाई स्वीकारें!
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