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तुम्हारे मन का चोर दरवाज़ा

तुम्हारे मन का चोर दरवाज़ा
जिसके पार -
लहराती हैं
बदहवास हवाएं
गूंजते जहाँ-
अतीत के गीत
सायास
बज उठती है
अकुलाई सुधियों
की रागिनी
अन्तस् वीणा को
छेड़ ज्यों
विहंसती हो कोई
कामिनी
अनजान हो तुम
कि तुम्हारे संग
है तुम्हारी छाया
सहेज रही तुम्हारे
बिखरे से जीवन
की माया
वह स्त्री जो
बुन रही सन्नाटे
वह अनुगामिनी
तुम्हारी जीवन संगिनी -
युगों के अंतराल
जिसने
प्रतीक्षा में काटे
जो चुन रही
तुम्हारे टूटे हुए
सपनो की किरचें
भटकती जो साथ साथ
छलना- कस्तूरी
के पीछे
वह स्त्री -
समर्पण उसका धर्म
समर्पण उसका संस्कार
जो अपना सब कुछ
सौंप कर भी
सिखा न सकी
तुमको
समर्पण के मायने
बदरंग होकर
दरकने लगे
सब आईने
उसे पाकर भी
डोलता है
तुम्हारा ईमान
तुम्हारी पुरुष प्रकृति
गढती है
सौन्दर्य के
नये नये आयाम
कल्पनाओं के
देश में
अतीत में, वर्तमान में
भविष्य के
परिवेश में
नित नये आकर्षण
पलते हैं आँखों में
अनजान क्षितिज पर -
किरणों के पांखों में
न जाने कौन सा
अजनबी संसार...
दरवाजे के उस पार ?!!
जीती है स्त्री भी
वही मरीचिका
प्रतिपल, अनवरत
तुम्हारे मन का चोर दरवाज़ा -
जिसे खोल न सकी वह अब तक!!!

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Vinita Shukla on March 10, 2013 at 8:05am

सुश्री आशा जी , मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है, सुन्दर शब्दों में सराहना के लिए हार्दिक आभार.

Comment by asha pandey ojha on March 9, 2013 at 10:08pm

@ Priya Vinita Shukla jiतुम्हारे मन का चोर दरवाज़ा -
जिसे खोल न सकी वह अब तक!!! is darwaje ke pichhe jana bahut sukhd lga aapki khoobsurt bhaawpoorn rachna padhne ko mili ,, bahut khoob 

Comment by Vinita Shukla on March 9, 2013 at 10:03pm

बहुत बहुत धन्यवाद राम शिरोमणि जी.

Comment by ram shiromani pathak on March 9, 2013 at 7:51pm

आदरणीया  Vinita Shukla जी! बहुत सटीक चोट की है आपने अपनी रचना के माध्यम से

Comment by Vinita Shukla on March 9, 2013 at 9:30am

आदरणीय सौरभ जी, आपने मेरी रचना को समय देकर, उसका इतना सुंदर विश्लेषण किया; इस हेतु हार्दिक आभार.

Comment by Vinita Shukla on March 9, 2013 at 9:28am

कोटिशः आभार किशन जी.

Comment by Vinita Shukla on March 9, 2013 at 9:28am

कविता में समाहित मर्म को ग्रहण कर, समर्थन प्रदान करने हेतु धन्यवाद वेदिका जी.

Comment by Vinita Shukla on March 9, 2013 at 9:26am

बहुत बहुत धन्यवाद मंजरी जी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 9, 2013 at 3:00am

विनिताजी, आपकी कविता प्रश्न-विन्दुओं को छूती है. उन्हें महसूसती है. लेकिन खोलती नहीं. स्वयं को आश्वस्त करते हुए या किसी भय से.  यही वैचारिक प्रौढ़ता है.  शब्द अपनी सीमा में अपरिहार्य हैं. वहीं अच्छे भी लगते हैं. उसके आगे अपेक्षाओं तथा सघन अनुमान का संसार है, जहाँ परस्पर समर्पणजन्य विश्वास का साम्राज्य है. आपकी कविता उसे ही पाठकों को इंगित कर शताब्दियों के प्रश्नों के उत्तर पाठकों पर छोड़ देती है.

बहुत-बहुत बधाई इस रचना के लिए.

Comment by वेदिका on March 8, 2013 at 10:44pm

आदरणीया  Vinita Shukla जी! बहुत सटीक चोट की है आपने अपनी रचना के माध्यम से। शायद पुरुष का अहम कभी भी स्त्री का समर्पण नही समझ सकता, इसके बीच में सदा ही पुरुष प्रवृति आजाती है। कई ऐसे उदाहरण है। लेकिन स्त्री केवल कविता में अपनी तकलीफ जाहिर कर सकती है, लेकिन उससे ही क्यों नही, जिससे उसे ये तकलीफ मिल रही है।
सादर  वेदिका

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