आँखों से मौत के निशाने निकल पड़े,
दिल पे चोट खाए दिवाने निकल पड़े,
बसती है तेरी चाहत सनम मेरी रूह में,
सूखे लबों की प्यास बुझाने निकल पड़े,
चाहतों के मामले फसानों में कैद है,
इल्जामों का पिटारा दिखाने निकल पड़े,
यादों का तेरे मौसम जब - जब आया है,
अश्को में बीते सारे ज़माने निकल पड़े,
होता है दर्द अक्सर तेरे बदले मिजाज़ से,
आज अपने साथ तुझको मिटाने निकल पड़े,
उल्फत की जिंदगी मैं जी-जी कर हारा हूँ,
समंदर में कश्तियाँ को बसाने निकल पड़े,
वो हंस-2 के मर गयी, मैं रो-रो के जी गया,
मेरे सीने में वफ़ा के जो खजाने निकल पड़े,
देखेंगे आज है कितनी ताकत तेरे सितम की,
हम गर्दन को तेरे आगे झुकाने निकल पड़े,
कहती है हूँ मैं दरिया, तुम डूब जाओगे,
फिर भी तेरे शहर में साँसे डुबाने निकल पड़े.......
Comment
शुक्रिया प्रदीप भाई
यादों का तेरे मौसम जब - जब आया है, ...अश्को में बीते सारे ज़माने निकल पड़े,....दिल छु लिया.. बधाई हो आपको ....
आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया.
यादों का तेरे मौसम जब - जब आया है,
अश्को में बीते सारे ज़माने निकल पड़े,
देखेंगे आज है कितनी ताकत तेरे सितम की,
हम गर्दन को तेरे आगे झुकाने निकल पड़े-------- अरुण शर्मा जी बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है आपने इन दो शेरों पर तो कुछ ज्यादा ही दाद कबूल करें पूरी ग़ज़ल पर बधाई ,
वो हंस-2 के मर गयी, मैं रो-रो के जी गया,
मेरे सीने में वफ़ा के जो खजाने निकल पड़े, बहुत ही सुन्दर भाव युक्त इस लाईन में तो सचमुच खजाना भर दिया
उल्फत की जिंदगी मैं जी-जी कर हारा हूँ,
समंदर में कश्तियाँ को बसाने निकल पड़े,
वो हंस-2 के मर गयी, मैं रो-रो के जी गया,
मेरे सीने में वफ़ा के जो खजाने निकल पड़े,
बहुत खूब ! सुन्दर शे'र और अल्फाजों से सजी हुई बढ़िया ग़ज़ल
आदरणीय रेखा जी , बहुत- बहुत शुक्रिया.
अरुण जी
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