For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कई बरसों के बाद घर मेरे चिड़ियाँ आईं
बाद मुद्दत ज्यों पीहर में बेटियाँ आईं !

ज़मीं वालों के तो हिस्से में कोठियाँ आईं,
बैल वालों के नसीबों में झुग्गियाँ आईं !

जाल दिलकश बड़े ले ले के मकड़ियां आईं
कत्ल हों जाएँगी यहाँ जो तितलियाँ आईं !

झोपडी कांप उठी रूह तलक सावन में,
ज्योंही आकाश पे काली सी बदलियाँ आईं !

ऐसे महसूस हुआ लौट के बचपन आया,
कल बड़ी याद मुझे माँ की झिड़कियां आईं !

बेटियों के लिए पीहर में पड़ गए ताले
हाथ बहुओं के जिस दिन से चाबियाँ आईं

उसके घर में है यकीनन ही कंवारी बेटी
जिसके चेहरे पे ये बेवक़्त झुर्रियां आईं !

Views: 472

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 14, 2011 at 10:59am
वाह वाह वाह, क्या बात है, शानदार।

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on August 14, 2010 at 6:08pm
@ आदरणीय जगदीश तपिश जी, बहुत बहुत धनयवाद ज़र्रा नवाजी के लिए !
@ आदरणीय आचार्य सलिल जी, ऐसी सुंदर और सार्थक टिपण्णी शायद ही किसी ने मेरी रचना पर कभी की हो, आपको हृदय से धन्यवाद देता हूँ ! आपका मार्गदर्शन हमेशा आपेक्षित रहेगा, कृपया आशीर्वाद बनाए रखें !
@ मीतू जी, आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मायने रखती है - धन्यवाद !
@ आशा बहन, आपका प्यार है जो आपको मेरे टूटे फूटे शब्द अच्छे लगे, सदा खुश रहो !
@ सतीश मापतपुरी भाई, मैं भी जब ये शेयर पढता हूँ तो स्वर्गीय माँ की याद आ जाती है ! आपको ग़ज़ल अच्छी लगी - बड़ा संतोष हुआ ये जानकर !
@ गणेश बागी जी, आपकी हौसला अफजाई का दिल से आभारी हूँ !
@ मनोज कुमार झा जी, शेअर पसंद करने के लिए धन्यवाद !
Comment by jagdishtapish on August 8, 2010 at 10:42am
भाई योगिराज जी
झोपडी कांप उठी रूह तलक सावन में --
ज्यों ही आकाश पे काली सी बदलियाँ आई |
भाई सोचने पर मजबूर कर दिया आपके इस शेर ने --
काश के वो ----------इन झोपड़ियों की किस्मत में भी
महलों की तरह उजाला लिख देता ?फिर नहीं कांपती ये झोपड़ियाँ
बदलियों के डर से --बेटियों के लिए पीहर में पड़ गए ताले --
भाई वाह जिंदा हकीक़त है ---इस दौर की कडवी सच्चाई
और उसके घर में है यक़ीनन ही कंवारी बेटी -----
एक गंभीर सी चिंता और दर्द छलकता है आपकी इन पंक्तियों से
ग़ज़ल का हर शेर अपनी जगह मुकम्मल है --साथ ही सार्थक सिध्द
हुआ है अपनी पहचान कायम करने में --ह्रदय से बधाई की पात्र है
आपकी सोच ---आपकी कलम--सादर
Comment by sanjiv verma 'salil' on August 4, 2010 at 9:23pm
प्रभाकर जी!
आपकी सारगर्भित रचना को पढ़कर मन पर हुई प्रतिक्रिया तेरा तुझको अर्पण क्या लगे मेरा की भावना सहित आपको समर्पित.

मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
*
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..

चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..

गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..

जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में तेरे-मेरे घर से पूड़ियाँ आईं..

धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..

कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..

दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..

नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..

**********************************************
दिव्यनर्मदा.ब्लॉगस्पोट.कॉम
Comment by asha pandey ojha on August 3, 2010 at 2:14pm
वाह !भाईसाब बहुत कमल की गज़ल कही है आपने बहुत दर्द उमड़ रहा है हर लफ्ज़ में इस बेमिसाल गज़ल पर तो कुछ कहने के लिए शब्द कम पद रहे हैं मेरे पास
कई बरसों के बाद घर मेरे चिड़ियाँ आईं
बाद मुद्दत ज्यों पीहर में बेटियाँ आईं !
ऐसे महसूस हुआ लौट के ...बचपन आया,
कल बड़ी याद मुझे माँ की झिड़कियां आईं ! ये इतनी अद्दभुत पंक्तियाँ हैं की मैं इन पालो को जीने लग हूँ जैसे फिर से ... किस गहराई और बैठ कर किन भावनाओं की कलम से लिखा है आपने मैं महसूस कर रही हूँ ... साधुवाद भाईसाब
और देखें
Comment by satish mapatpuri on August 3, 2010 at 1:02pm
ऐसे महसूस हुआ लौट के बचपन आया,
कल बड़ी याद मुझे माँ की झिड़कियां आईं !
सादर नमन, बड़े ही खुबसूरत अंदाज़ में खुबसूरत ख्याल पेश किया है. आपकी इस लाइन ने मुझे रुला दिया. मुझे भी मेरी माँ की याद आ गई. 1975 में- जब मैं दसवीं में पढ़ता था, तभी मेरी माँ व्योमवासी हो गई. तहेदिल से मुबारकवाद दे रहा हूँ.

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 3, 2010 at 11:43am

वाह गुरु देव वाह क्या खूबसूरती से हुस्ने मतला का प्रयोग किया है साथ ही इतने कठिन काफ़िया के साथ शे'र निकालना तो कोई आपसे सीखे, सभी शे'र उच्चे ख्यालात से लबरेज हैं, सब मिलाके बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है, मुझे नीचे लिखे दो शे'र काफ़ी अच्छे लगे,

बेटियों के लिए पीहर में पड़ गए ताले
हाथ बहुओं के जिस दिन से चाबियाँ आईं

उसके घर में है यकीनन ही कंवारी बेटी
जिसके चेहरे पे ये बेवक़्त झुर्रियां आईं

बहुत बहुत बधाई गुरुदेव इस उम्दा अभिव्यक्ति के लिये,

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
6 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
6 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
23 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
23 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
23 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
23 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
23 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
23 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
23 hours ago
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
yesterday
Shyam Narain Verma commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
yesterday
Sanjay Shukla replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दिनेश जी, बहुत धन्यवाद"
yesterday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service