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ग़ज़ल-7 (योगराज प्रभाकर)

कत्ल पेड़ों का हुआ तो, हो गया प्यासा कुआँ !
तिश्नगी अब क्या बुझाएगा भला तिश्ना कुआँ !

पनघटों पर ढूँढती फिरती सभी पनिहारियाँ,
एक दिन ये लौट कर आयेगा बंजारा कुआँ !

बस किताबों में नजर आएगा, ये अफ़सोस है
हो गया इतिहास अब ये भूला बिसरा सा कुआँ !

एक दिन बेटी को जिसकी खा गया था रात में,
उसको तो ख़ूनी लगे उसदिन से ही अँधा कुआँ !

मौत शायद टल ही जाये धान की इंसान की,
गर किसी सूरत कहीं ये हो सके ज़िन्दा कुआँ !

अब यकीनी लग रहा है घर में नन्हा आएगा,
उसकी माता ने बहु संग प्यार से पूजा कुआँ !

ये मेरी आवाज़ में ही नकल करता था मेरी,
जो भी मैं कहता इसे, वोही सुनाता था कुआँ !

उसको भागीरथ कहेगा आने वाला वक़्त भी,
घर के आँगन में कभी जो लेके आया था कुआँ !

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 12, 2013 at 8:22pm

आदरणीय,

इस गज़ल को बहुत अरसे पहले पड़ा था... पर अक्सर इसके कहन की अनुगूंज कानों में अब भी गूँज उठती है..  

गज़ल की मिसाल की तरह इस गज़ल को मैं देखती हूँ.. 

उत्कृष्ट भाव, संस्कृति, स्वप्न, पौराणिक बिम्ब, सामाजिक विवशता..   कितना कुछ समाहित है इस एक गज़ल में और 'कुआँ' जैसा मुश्किल असंभव सा रदीफ... 

बहुत बहुत बधाई स्वीकारें इस बेमिसाल गज़ल पर..

सादर.

Comment by Aparna Bhatnagar on September 18, 2010 at 11:50pm
ये मेरी आवाज़ में ही नकल करता था मेरी,
जो भी मैं कहता इसे, वोही सुनाता था कुआँ !

उसको भागीरथ कहेगा आने वाला वक़्त भी,
घर के आँगन में कभी जो लेके आया था कुआँ !

कुँए से जुडी संस्कृति , जीवन, और मनोविज्ञान को किस खूबसूरती से चित्रित किया आपने ... हैरान हूँ !

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on August 14, 2010 at 5:55pm
गणेश बागी जी, राणा प्रताप जी, आशा बहन, बबन पाण्डेय जी, मनोज कुमार झा जी, सतीश मापतपुरी जी, आशीष यादव जी, प्रीतम तिवारी जी, पंकज त्रिवेदी भाई जी, एवं नवीन चतुर्वेदी जी - आपकी हौसला अफजाई का दिल से आभार !
Comment by Pankaj Trivedi on August 13, 2010 at 9:47am
कत्ल पेड़ों का हुआ तो, हो गया प्यासा कुआँ !
तिश्नगी अब क्या बुझाएगा भला तिश्ना कुआँ !
* * *
एक दिन बेटी को जिसकी खा गया था रात में,
उसको तो ख़ूनी लगे उसदिन से ही अँधा कुआँ !

येगीभाई,
आपने कुएँ का प्रतीक लेकर आपने प्रत्येक शेर में जान दी है | लिखने बैठे तो हर शेर पर... फिर भी मेरी बधाई |
Comment by PREETAM TIWARY(PREET) on August 12, 2010 at 8:18pm
कत्ल पेड़ों का हुआ तो, हो गया प्यासा कुआँ !
तिश्नगी अब क्या बुझाएगा भला तिश्ना कुआँ !

प्रणाम योगराज भैया....बहुत ही बढ़िया रचना है गुरुदेव....

और कुछ नही कह सकता क्यूकी मुझे इन सब के बारे मे इतना ज्ञान नही है..लेकिन अब आपलोग की शरण मे बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है इसलिए बस इतना ही बहुँगा की बहुत ही शानदार रचना है...
Comment by आशीष यादव on August 12, 2010 at 4:45pm
kya shandaar gazal hai
ye apni sanskrit ko bhi batati hai aur aaj ke haalaat se bhi awagat karaati hai.
Comment by satish mapatpuri on August 12, 2010 at 4:32pm
बस किताबों में नजर आएगा, ये अफ़सोस है

हो गया इतिहास अब ये भूला बिसरा सा कुआँ !


एक दिन बेटी को जिसकी खा गया था रात में,

उसको तो ख़ूनी लगे उसदिन से ही अँधा कुआँ !
क्या कहूँ , समझ में नहीं आता है गुरूजी, बस इतना ही कहूंगा - लाजवाब.
Comment by baban pandey on August 12, 2010 at 2:31pm
जय हो ...कुआं पूरी एक संस्कृति है बड़े भाई ...और आपने उस पूरी संस्कृति को समेत दिया है ...सादर
Comment by asha pandey ojha on August 12, 2010 at 12:33pm
वाह !भाईसाब क्या गज़ल कही है कमाल..कंही दर्द की अनुगूँज है तो कंही कंही विलुप्त होती संस्कृति को लौटा लाने का प्रयास ,कंही मजबूर बाप का ग़म है तो कंही चौतरफा फैले पानी के भयावह संकट से मुक्ति पाने का इशारा भी अपनी संस्कृति के प्रति श्रधा का अहसास दिलाती इस गज़ल को पढ़ कर पोर-पोर पुलकित हो गया रदीफ़ कुआँ भी हो सकती है .. क्या ये कोई सोच भी सकता है वाह !!! वाह !!!

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on August 12, 2010 at 12:06pm
योगी सर
एक एक शेर झंडा गाड देने वाला है
दो शेर तो पढ़ते पढ़ते मै फ्रीज़ हो गया...आगे बढ़ ही नहीं पाया

१- एक दिन बेटी को जिसकी खा गया था रात में,
...
उसको तो ख़ूनी लगे उसदिन से ही अँधा कुआँ !

२- अब यकीनी लग रहा है घर में नन्हा आएगा,

उसकी माता ने बहु संग प्यार से पूजा कुआँ !

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