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नफरत ने जो दिया वो मुहब्बत न दे सकी
हमको सफलता यार इनायत न दे सकी।१।
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चर्चा प्रलय की करती हैं धर्मों की पुस्तकें
पापों को किन्तु अन्त कयामत न दे सकी।२।
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बूढ़े हुए हैं लोग जो चाहत में स्वर्ग के
कह दो उन्हें कि मौत भी जन्नत न दे सकी।३।
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सोचा था एक हम ही हैं इसके सताये पर
सुनते खुशी उन्हें भी सराफत न दे सकी।४।
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जो बन के सीढ़ी खप गये सत्ता के वास्ते
उनको कफन भी यार सियासत न दे सकी।५।
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चाहे गलत हो किन्तु है निष्ठा अमीर पर
दुनिया कभी गरीब को इज्जत न दे सकी।६।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
Comment
आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन ।गजल पर उपस्थिति , स्नेह और सुझाव के लिए हार्दिक आभार । मिसरे के विन्यास पर आपका कथन सर्वथा उचित है । सादर.....
पुनश्च ः 'सराफत' को शराफत होना चाहिए । और, हाँ,
'जो बन के सीढ़ी खप गये सत्ता के वास्ते,
उनको क़फ़न भी य़ार सियासत न दे सकी ।' मुझे खास पसन्द आया ।
शुुभ प्रभात, भाई लक्ष्मण सिंह मुसाफिर, एक अच्छी सार्थक ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करेें ।एकाध जगह शब्द संयोजन गड़बड़ाता लगा, यथा, पापों को किन्तु अन्त क़यामत न दे सकी । जिसमें वाक्य विन्यास की दृष्टि से अन्त पहले और किन्तु बाद में आना चाहिए। सादर
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