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चर्चा प्रलय की करती हैं धर्मों की पुस्तकें -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२२१/२१२१/१२२१/२१२


नफरत ने जो दिया वो मुहब्बत न दे सकी
हमको सफलता  यार  इनायत न दे सकी।१।
*
चर्चा प्रलय की करती हैं धर्मों की पुस्तकें
पापों को किन्तु अन्त कयामत न दे सकी।२।
*
बूढ़े हुए  हैं  लोग  जो  चाहत  में  स्वर्ग के
कह दो उन्हें कि मौत भी जन्नत न दे सकी।३।
*
सोचा था एक हम ही हैं इसके सताये पर
सुनते खुशी उन्हें  भी  सराफत न दे सकी।४।
*
जो बन के सीढ़ी  खप  गये सत्ता के वास्ते
उनको कफन भी यार सियासत न दे सकी।५।
*
चाहे गलत हो किन्तु है निष्ठा अमीर पर
दुनिया कभी गरीब को इज्जत न दे सकी।६।
*


मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 12, 2021 at 7:22am

आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन ।गजल पर उपस्थिति , स्नेह और सुझाव के लिए हार्दिक आभार ।  मिसरे के विन्यास पर आपका कथन सर्वथा उचित है । सादर.....

Comment by Chetan Prakash on September 12, 2021 at 7:01am

पुनश्च ः 'सराफत' को शराफत होना चाहिए । और, हाँ,
'जो बन के सीढ़ी खप गये सत्ता के वास्ते,
उनको क़फ़न भी य़ार सियासत न दे सकी ।' मुझे खास पसन्द आया ।

Comment by Chetan Prakash on September 12, 2021 at 6:52am

शुुभ प्रभात, भाई लक्ष्मण सिंह मुसाफिर, एक अच्छी सार्थक ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करेें ।एकाध जगह शब्द संयोजन गड़बड़ाता लगा, यथा, पापों को किन्तु अन्त क़यामत न दे सकी । जिसमें वाक्य विन्यास की दृष्टि से अन्त पहले और किन्तु बाद में आना चाहिए। सादर

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