"बाबा, गौर से सुनो, आज फिर मेरे कान्हा की बांसुरी की मधुर स्वर लहरी गूंज रही है।"
बाबा ने अपने दाँये कान के पास हथेली से ओट बनाते हुए सुनने की कोशिश की।
"राधा बेटी मुझे तो कुछ नहीं सुनाई पड़ा ? तू तो बावरी हो गई है उस बहुरूपिया कान्हा के लिये।"
"आप बूढ़े हो गये हो। आपके कान कमजोर हो गये हैं।"
"बिटिया तू क्यों खुद को झूठी तसल्ली दे रही है।अब वह कभी नहीं आने वाला।"
"मेरा कान्हा अवश्य आयेगा।"
"अब वह केवल तेरा कान्हा नहीं है।अब वह द्वारिका का राजा है।"
"वह जो भी हो गया हो पर अपनी राधा को कभी नहीं भूलेगा।"
"बेटी, उसका एक नाम छलिया भी है।"
"बाबा, आपको जो भी कहना स्पष्ट कह दो।"
"मैं तो केवल इतना चाहता हूँ कि तू अब उसे भूल जा।"
"बाबा, क्या आपको लगता है कि यह इतना सरल है।"
"तो क्या जीवन भर ऐसे ही सुलगती रहेगी?"
"बाबा, यही तो प्रेम है।"
मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित
Comment
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन । अच्छी कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब जी।आदाब।
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब, अच्छी लघुकथा हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
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