अधूरे अफ़साने :
जाने कितने उजाले ज़िंदा हैं
मर जाने के बाद भी
भरे थे तुम ने जो
मेरी आरज़ूओं के दामन में
मेरे ख़्वाबों की दहलीज़ पर
वो आज भी रक़्स करते हैं
मेरी पलकों के किनारों पर
तारीकी में डूबी हुई
वो अलसाई सी सहर
वो अब्र के बिस्तर पर
माहताब की
अंगड़ाइयों का कह्र
वो लम्स की गुफ़्तगू
महक रही है आज भी
दूर तलक
मेरे जिस्मो-जां की वादियों में
तुम थे
तो अंधेरों से मोहब्बत थी हमको
जुदा हो कर तुमसे
गुम कर लिया है ख़ुद को
अंधेरों की क़बा में
आओ और ले जाओ
अपनी उल्फ़त की वो रिदा
सोये हैं जिसमें
ख़ामोश क़ुर्बतों के
अधूरे अफ़साने
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय डॉ छोटेलाल सिंह जी सृजन पर आपकी मनोहारी प्रशंसा से समृद्ध हुआ, हार्दिक आभार।
आदरणीय सुशील सरना जी बहुत ही अच्छी रचना हुई कितनी भी प्रशंसा की जाय कम है दिल से बधाई
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब, सृजन के भावों पर आपकी स्नेह बरखा का दिल से आभार। आपके सुझाव का दिल से आभार। मैं इसे अभी एडिट करता हूँ। तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय अमीरुद्दीन खा़न "अमीर " जी भावों पर आपकी मनोहारी प्रशंसा से सृजन सार्थक हुआ, हार्दिक आभार।
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर जी भावों पर आपकी मनोहारी प्रशंसा से सृजन सार्थक हुआ, हार्दिक आभार।
आदरणीय सुशील सरना जी, आदाब। "अधूरे अफ़साने" ख़़ू़ूबसूरत रचना के लिए आपको बहुत बधाईयाँ। सादर ।
जनाब सुशील सरना जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
'तारीक में डूबी हुई '
इस पंक्ति में 'तारीक' को "तारीकी" कर लें ।
'ग़ुम कर लिया है'
इस पंक्ति में 'ग़ुम' को "गुम" कर लें ।
आ. भाई सुशील जी सादर अभिवादन । अच्छी रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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