( 2122 1122 1122 22 /112 )
है कोई आरज़ू का क़त्ल जो करना चाहे
कौन ऐसा है जहाँ में कि जो मरना चाहे
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तोड़ देते हैं ज़माने में बशर को हालात
अपनी मर्ज़ी से भला कौन बिखरना चाहे
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आरज़ू सबकी रहे ज़ीस्त में बस फूल मिलें
ख़ार की रह से भला कौन गुज़रना चाहे
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ज़िंदगी का हो सफ़र या हो किसी मंज़िल का
बीच रस्ते में भला कौन ठहरना चाहे
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देख क़ुदरत के नज़ारे है भला कौन बशर
जो कि ये रंग नज़र में नहीं भरना चाहे
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प्यार वो कश्ती है जिस पर जो चढ़ा है इक बार
कौन है ऐसा जो फिर उस से उतरना चाहे
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जिस परिंदे ने फ़लक देख लिया चाहे क्यों
उसके सय्याद कोई पंख कतरना चाहे
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आतिश-ए-ग़म की तलब कौन जहाँ में करता
हर कोई ज़ीस्त में खुशियों का ही झरना चाहे
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अपनी मर्ज़ी से चुने कौन शब-ए-हिज्र 'तुरंत'
कौन है मीत से जो वस्ल न करना चाहे
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आद0 गिरधर सिंह गहलोत जी सादर अभिवादन। अच्छी ग़ज़ल कही आपने। बधाई स्वीकार कीजिये
आदरणीय अमीरुद्दीन खा़न "अमीर " साहेब , आपको कुछ नजीरें पेश कर रहा हूँ --
जो एक पल को बुझे बज़्म-ए-रंग-ओ-बू के चराग़
तो हम ने दार पे रौशन किए लहू के चराग़
हवा-ए-तीरा-नसब क्या बुझा सकेगी उन्हें
कि आंधियों में भी जलते हैं आरज़ू के चराग़
अदा-ए-मौसम-ए-गुल का कमाल क्या कहिए
कली कली से फ़रोज़ाँ हुए नुमू के चराग़
बुझी जो सुब्ह तो सीनों में दिल जलाए गए
हुई जो शाम तो रौशन हुए सुबू के चराग़
ये नक़्श-ए-पा हैं मिरे या सवाद-ए-मंज़िल तक
क़दम क़दम पे नुमायाँ हैं जुस्तुजू के चराग़
कभी कभी तो 'ज़िया' वो भी वक़्त आता है
बुझाने पड़ते हैं ख़ुद अपनी आरज़ू के चराग़
दिल-दादगान-ए-लज़्ज़त-ए-ईजाद क्या करें
सैलाब-ए-अश्क-ओ-आह पे बुनियाद क्या करें
करना है बन को ताज़ा निहालों की देख भाल
बीती हुई बहार को वो याद क्या करें
हाँ जान कर उमीद की मद्धम रखी है लौ
अब और पास-ए-ख़ातिर-ए-नाशाद क्या करें
संगीं हक़ीक़तों से कहाँ तक मलूल हों
रानाई-ए-ख़याल को बरबाद क्या करें
देखो जिसे लिए है वो ज़ख़्मों की काएनात
हम एक अपने ज़ख़्म पे फ़रियाद क्या करें
रिंदों की आरज़ू का तलातुम कहाँ से लाएँ
आसूदगान-ए-मसनद-ए-इरशाद क्या करें
किस को नहीं सुकून की ख़्वाहिश जहान में
उफ़्तादगान-ए-रहगुज़र-ए-बाद क्या करें
जो हर नज़र में ताज़ा करें मय-कदे हज़ार
सच है 'सुरूर'-ए-रफ़्ता को वो याद क्या करें
गले से देर तलक लग के रोएँ अब्र-ओ-सहाब
हटा दिए हैं ज़मान-ओ-मकाँ के हम ने हिजाब
लहद की मिट्टी की तक़दीर की अमान मैं दूँ
सफ़ेद लट्ठे में कफ़ना के सुर्ख़ शाख़-ए-गुलाब
मैं आसमान तिरे जिस्म पे बिछा देता
मगर ये नील में चादर बनी नहीं कमख़ाब
तिरा वो रातों को उठ कर सिसक सिसक रोना
लहू में नींद की टीसें पलक पे इज्ज़ के ख़्वाब
तिरे जलाए दियों में भड़कती आग का फेर
ज़मीं की रेहल पे रक्खे न रौशनी की किताब
हवा बहिश्त के बाग़ों की ज़ुल्फ़ ज़ुल्फ़ फिरे
तिरी लहद तिरे बालीं के गर्द जू-ए-शराब
कमान खींच ज़माने की सू-ए-सीना-ज़नाँ
ऐ फ़र्क़-ए-नाज़ गले से उतार तौक़-ए-ग़याब
मैं एक यख़-ज़दा माथे को चूम कर दम-ए-सुब्ह
तिरी ज़मीनों से गुज़रूँगा ऐ जहान-ए-ख़राब
मशक़्क़ती हैं तिरे काख़-ओ-कू-ए-हिज्र के हम
ऐ कार-ख़ाना-ए-अफ़्लाक-ओ-ख़ाक-ओ-आब-ओ-सराब
जी बेहतर।
मेरी जानकारी भी बहुत कम है, इसलिए इस पर उस्ताद ए मुहतरम जनाब समर कबीर साहब
से गुज़ारिश है कि वो मेरी जानकारी को अपने इल्म की रौशनी से मअ़मूर फरमाएं। सादर।
आदरणीय अमीरुद्दीन खा़न "अमीर साहेब , आदाब ,आपकी हौसला आफ़जाई के लिए दिल से शुक्रिया | जहाँ तक मेरी जानकारी हैं ,इन दोनों अशआर में आख़िरी लफ़्ज़ बह्र में गिना नहीं जाता | पूरी की पूरी ग़ज़ल हर पंक्ति में अंतिम अक्षर को कम करके कही जाती है --
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत जी 'तुरंत ' आदाब । अच्छी ग़ज़ल हुई है। बधाई स्वीकार करें।
तोड़ देते हैं ज़माने में बशर को हालात और
अपनी मर्ज़ी से चुने कौन शब-ए-हिज्र 'तुरंत' इन दोनों मिसरों का आख़िरी लफ़्ज़ बह्र में नहीं है। देखियेगा। सादर।
आदरणीय TEJ VEER SINGH जी , आपकी हौसला आफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |
भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी, आपकी हौसला आफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |
आ. भाई गिरधारी सिंह जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत जी। बेहतरीन गज़ल।
प्यार वो कश्ती है जिस पर जो चढ़ा है इक बार
कौन है ऐसा जो फिर उस से उतरना चाहे
आदरणीय Samar kabeer साहेब ,आदाब , आपकी हौसला आफजाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया | आपकी दोनों ही बातें सही है , प्रयास करूँगा सही करने का |
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