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हवा का झोंका (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी (42)

"बगल में दूसरी झुग्गी का इन्तज़ाम कर दिया, फिर भी तुम हमरे बेटे को ही हमसे से दूर करके सुखी रह सकती हो किराये के मकान में, तो जाओ, हम दोनों तो यहीं अपनी झुग्गी झोपड़ी में ही बाक़ी ज़िन्दगी बिता देंगे ! " - सावित्री ने बड़े उदास मन से बहू से कहा।

"देखो, मांजी, हमारे बच्चे बड़े हो गए हैं, अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ेंगे, तो हमारा इस टिन- टप्पड़ वाली झुग्गी में रहना उन्हें और उनके दोस्तों को कैसा लगेगा ? मेरे मायके वाले भी यहाँ आना पसंद नहीं करते !"

"अगर तुम दोनों इतना कमा लेते हो, तो ठीक है, तुम्हारी जैसी मर्ज़ी ! लेकिन हमरा नसीब तो देखो, ये हमारा वही बेटा है जिसने खेती करने से मना कर दिया था और हम सबको शहर लेकर आया था यह कहकर कि ख़ूब कमायेगा और हमरे कैंसर का इलाज़ करायेगा ! "- ये कहकर सावित्री अपने आँसुओं को रोकने की कोशिश करने लगी।

" तुमने अपनी जी ली, अब तो हमें जी लेने दो अपने हिसाब से ! आते जाते तो रहेंगे न ! और ससुर जी इतनी मज़दूरी तो कर ही लेते हैं कि तुम दोनों का गुज़ारा चल जाये ! " -बहू ने अपना सामान बांधते हुए कहा - "मांजी, हम क्या कर सकते हैं, तुम्हारा कैंसर तो अब लाइलाज़ है, हम अपनी ज़िन्दगी में कैंसर क्यों लगायें !"

"कैंसर तो बहू तुमने मेरे बेटे को लगाया है शहर की आवो-हवा का ! "

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 16, 2015 at 5:12pm
तहे दिल बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सतविंदर कुमार जी व आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, मेरी रचना पर टिप्पणी करने व सराहना करने के लिए।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on December 10, 2015 at 6:18am
हालात से भागना किसी की मजबूरी तो किसी के लिए जरुरी।पर रिश्तों से भाग जाना सच में अनुचित लगता है।भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय उस्मानी जी।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 9, 2015 at 11:10am

इस बेहतरीन लागूकथा के लिए हार्दिक बधाई

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 9, 2015 at 2:12am
मेरे ब्लोग पर उपस्थित हो कर रचना का अवलोकन कर समीक्षात्मक टिप्पणी के द्वारा मुझे प्रोत्साहित करने के लिए तहे दिल बहुत बहुत शुक्रिया जनाब सुनील वर्मा जी।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 8, 2015 at 4:54pm
उपेक्षा के ज़हर की समाज के समक्ष चुनौतियों पर रोशनी डालते हुए मुझे प्रोत्साहित करने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सुशील सरना जी।
Comment by Sushil Sarna on December 8, 2015 at 12:50pm

आदरणीय शेख उस्मानी साहिब आज की हवा को आपने बहुत ही संजीदगी से पेश किया है। आज सब सम्बन्ध मैं में सिमट कर रह गए हैं। हम और हमारे जैसे शब्द कहीं किताबों में दफन हो गए हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ के आगे हर दुःख दर्द गौण हो गए हैं। इस बढ़ती मानसिकता के लिए आखिर कौन दोषी है - हम -जो उन्हें संस्कार देते हैं , शिक्षा - जो ज्ञान देती है , रिश्ते - जो जीने का भाव सिखाते हैं , सोसाईटी - जो हर संस्कार ,हर ज्ञान ,हर रिश्ते से ऊंची है -- आखिर कौन है दोषी ? हमें सोचना होगा वरना उपेक्षा का ज़हर समाज को आत्महीन कर देगा।  बहरहाल इस संदेशप्रद लघुकथा के लिए के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय। 

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