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ग़ज़ल -नूर -कितनी सादा-दिली से मिलता है

२१२२/१२१२/२२ 
कितनी सादा-दिली से मिलता है
जब समुन्दर नदी से मिलता है.
.
इक नयी कायनात पनपेगी    
कोई भौंरा कली से मिलता है.  
.
रब्त इस बात पर टिके हैं अब
कोई कितना किसी से मिलता है.
.
हर किसी से यही वो कहते हैं
दिल मेरा आप ही से मिलता है. 
.
अब सुमंदर में भी है बे-चैनी
क़तरा अपनी ख़ुदी से मिलता है.
.
सुब’ह से पहले जुगनू यूँ चमका
गोया लम्हा सदी से मिलता है.

मौत से क्या पता मिले क्या कुछ
दर्द.... हाँ ...ज़िन्दगी से मिलता है.
.
मुफ़्लिसी से गुज़र रहा होगा
आजकल वो सभी से मिलता है.
.
नाच उठती हैं बृज की सब गलियाँ
श्याम जब बाँसुरी से मिलता है.
.
‘नूर’ अहसास-ए-कमतरी क्यूँ हो
अपना शजरा उसी से मिलता है.

.
निलेश "नूर"

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Comment

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Comment by दिनेश कुमार on May 27, 2015 at 8:32pm
मौत से क्या पता मिले क्या कुछ
दर्द.... हाँ ...ज़िन्दगी से मिलता है.... सत्य वचन .... बहुत खूब ....
रब्त इस बात पर टिके हैं अब
कोई कितना किसी से मिलता है......वाह वाह ... सत्य वचन ...
नूर’ अहसास-ए-कमतरी क्यूँ हो
अपना शजरा उसी से मिलता है.... आत्मविश्वास से लबरेज़ .... वाह वाह ...
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है आ. निलेश भाई ... वाह वाह

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 27, 2015 at 8:01pm

वाह आदरणीय निलेश भैया बेहतरीन असरदार ग़ज़ल है

Comment by विनय कुमार on May 27, 2015 at 5:58pm

मौत से क्या पता मिले क्या कुछ
दर्द.... हाँ ...ज़िन्दगी से मिलता है.
मुफ़्लिसी से गुज़र रहा होगा
आजकल वो सभी से मिलता है.
वाह , वाह , क्या कमाल की पंक्तियाँ हैं , बहुत बहुत बधाई आदरणीय.

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 27, 2015 at 3:43pm

शुक्रिया आ. सुलभ जी 

Comment by Sulabh Agnihotri on May 27, 2015 at 1:17pm

कितनी सादा-दिली से मिलता है
जब समुन्दर नदी से मिलता है.

मौत से क्या पता मिले क्या कुछ 
दर्द.... हाँ ...ज़िन्दगी से मिलता है.

मुफ़्लिसी से गुज़र रहा होगा 
आजकल वो सभी से मिलता है.

नाच उठती हैं बृज की सब गलियाँ 
श्याम जब बाँसुरी से मिलता है.
.
‘नूर’ अहसास-ए-कमतरी क्यूँ हो 
अपना शजरा उसी से मिलता है.

बहुत सुन्दर है नूर साहब

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 27, 2015 at 12:29pm

शुक्रिया आ. डॉ साहब ..
क़तील शिफ़ाई साहब का ये शेर देखें 
.
मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा-दिली मार ना डाले मुझको।
.
सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 27, 2015 at 12:06pm

नूर भाई

लाजवाब गजल -

मुफ़्लिसी से गुज़र रहा होगा
आजकल वो सभी से मिलता है.----नूर भाई मैं  आपकी गजल पर कुछ कहूं इतना इल्म नहीं है पर मुझे लगता है कितनी सादा दिली के बजे कितना सदा दिली ज्यादा अच्छा होगा . आपके मार्गदर्शन की प्रतीक्षा रहेगी. सादर .

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 27, 2015 at 11:34am

आ० nilesh सर... 'भाई' और 'साहब' एक साथ अच्छा नही लग रहा! या तो भाई हो या तो साहब!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 27, 2015 at 11:31am

शुक्रिया भाई 'जान गोरखपुरी' साहब 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 27, 2015 at 11:30am

शुक्रिया आ. समर कबीर साहब ..
आपकी दाद पाकर गदगद हूँ 
आभार 

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