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ग़ज़ल -नूर -सपने क्या क्या बुन लेते थे छोटी छोटी बातों में

मात्रिक बहर 22/22/22/22/22/22/22/2 

क्या क्या सपनें बुन लेते थे छोटी छोटी बातों में
क़िस्मत ने कुछ और लिखा था लेकिन अपने हाथों में.
.
कैसे कैसे खेल थे जिन में बचपन उलझा रहता था
मोटे मोटे आँसू थे उन सच्ची झूठी मातों में.
.
कितने प्यारे दिन थे जब हम खोए खोए रहते थे 
लड़ते भिड़ते प्यार जताते खट्टी मीठी बातों में.

एक ये मौसम, ख़ुश्क हवा ने दिल में डेरा डाला है
एक वो ऋत थी, साथ तुम्हारे भीगे थे बरसातों में.
.
एक समय तो ख़्वाबों में भी साथ तुम्हारा होता था
लेकिन आवारा से फ़िरते हैं अब तन्हा रातों में.
.
थोड़े इसके थोड़े उसके लेकिन ख़ुद के कुछ भी नहीं
धीरे धीरे रोज़ ख़ज़ाना लुटता है खैरातों में.

इन साँसों में समा गयी है गीली मेहंदी की ख़ुशबू
वक़्ते रुख्सत हाथ था उनका “नूर” हमारे हाथों में
.
निलेश "नूर"

मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 716

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 1, 2015 at 10:27pm

शुक्रिया. आ. राजेश कुमारी जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 1, 2015 at 10:27pm

शुक्रिया आ. डॉ आशुतोष जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 1, 2015 at 10:27pm

शुक्रिया आ. डॉ गोपाल नारायण जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 1, 2015 at 10:08pm

वाह्ह्ह वाह्ह नीलेश जी,क्या गज़ब की ग़ज़ल लिखी है हर शेर पर दिल से दाद लीजिये | 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 1, 2015 at 2:18pm

आदरणीय नूर जी ..हमेशा की तरह शानदार ग़ज़ल ..हर शेर उम्दा है ..लेकिन आख़िरी शेर की जो खुसबू है कमाल की है उसी शेर पर मेरा भी साथ इस ग़ज़ल ले छूटा है ...ढेर सारी बधाई के साथ सादर

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 1, 2015 at 11:41am

आ० नूर जी

मैं आपको कई बार कोहेनूर कह चुका हूँ . आज भी वही दुहराता हूँ . क्य्या मुकम्मिल शायरी है .हृदय से आभार .

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 31, 2015 at 9:42pm

शुक्रिया आ. वीनस जी ..
आपकी दाद पा कर गद्गद हूँ  

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 31, 2015 at 9:41pm

शुक्रिया आ. श्री सुनील जी 

Comment by वीनस केसरी on May 31, 2015 at 12:23pm

कामयाब ग़ज़ल है भाई जी

एक एक शेर पर ढेरो दाद

Comment by shree suneel on May 31, 2015 at 2:19am
क्या क्या सपनें बुन लेते थे छोटी छोटी बातों में
क़िस्मत ने कुछ और लिखा था लेकिन अपने हाथों में."... सहीही बात!
आदरणीय निलेश जी, इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई.
"कितने प्यारे दिन थे जब हम खोए खोए रहते थे
लड़ते भिड़ते प्यार जताते खट्टी मीठी बातों में."... याद आ गये वो दिन
बहुत बढि़या.

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