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किसी के चश्मे नम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की

1222/ 1222/ 1222/ 1222

किसी की चश्मे नम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की

गरीबों के शिकम* से गुज़री हैं राहें बलन्दी की                       *पेट

 

जिन्हें तू अपने पीछे यूँ तड़पता छोड़ जाता है

ये वो हैं जिनके दम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की

 

न जाने नींद कैसे आती है ऐ बेरहम तुझको

तेरे कारे सितम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की

 

कोई ये देख पाता काश कुछ भी कहने से पहले

कि कितने पेचो-खम* से गुज़री हैं राहें बलन्दी की               

 

पलट के देख लो मायूस चेहरों की तरफ़ इक बार

किस उम्मीदे करम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की 

-मौलिक व् अप्रकाशित

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Comment by shikha kaushik on May 27, 2015 at 9:04pm

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल .बधाई 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 27, 2015 at 8:38pm

आ0शिज्जू भाई  जी,  बेहतरीन गज़ल के लिये दिली दाद कुबूल करें. सादर


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 27, 2015 at 7:46pm

आदरणीय निलेश भैया आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 27, 2015 at 7:45pm

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया बुलंदी और बलंदी दोनों सही हैं


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 27, 2015 at 7:43pm

भाई जान गोरखपुरी जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 27, 2015 at 7:42pm

आदरणीय समर कबीर साहब आपका बहुत बहुत शुक्रिया मिसरा सुधार दिया है

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 27, 2015 at 12:45pm

वाह वाह वा ....
बहुत ख़ूब....तंज़िया ग़ज़ल हुई है ..जनाब ..
बधाई 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 27, 2015 at 11:48am

आ0 शिज्जू भाई

बहुत बलंद गजल . हम तो बुलंदी को सही समझते रहे .  सादर .

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 27, 2015 at 10:44am

वाह! आ० शिज्जू सर बेहतरीन और बुलन्द गजल पर हार्दिक बधाई निवेदित है!सादर!

Comment by Samar kabeer on May 26, 2015 at 11:37pm
जनाब शिज्जु "शकूर" जी ,आदाब,एक और अच्छी ग़ज़ल आपके ज़ह्न से निकली और मेरे दिल-ओ-दिमाग़ को मसरूर कर गई ,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

मतले के ऊला मिसरे में "के" की जगह "की" कर लीजियेगा ,"चश्म-ए-नम" स्त्रीलिंग है ।

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