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“बेटा!.. तुझे याद है न.. जब तू स्कूल में प्रथम श्रेणी  में आया था ,  मुझे कितनी ख़ुशी हुई थी . सभी लोग  यही कह रहे  थे  कि मेरा बेटा है" 

“ हाँ!..पर रात-दिन पढाई मैंने की थी, आपने जो किया था  वो आपका फर्ज था "

“ हाँ! बेटा यही समझ ले, बस मुझे इसी घर में रहने दे. अब गली-गली दरबदर फिरूंगा, तो लोग यही कहेंगे की तेरा बाप हूँ...”

    जितेन्द्र पस्टारिया

 (मौलिक व् अप्रकाशित )

 

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 25, 2015 at 12:15am
भीतर तक छू गई कथा। मार्मिक व्यंग्य। दिल से बधाई इस लघुकथा के लिए। आदरणीय जीतेन्द्र जी आपकी श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक है ये रचना। बहुत बहुत धन्यवाद इस विषय को उठाने के लिए और इतना प्रभावशील कथ्य प्रस्तुत करने के लिए।
Comment by maharshi tripathi on February 24, 2015 at 10:30pm

वर्तमान परिस्थिति में पिता- पुत्र के प्रेम किस कदर कांटे हो गये ,इस लघु कथा  से आसानी से समझा जा सकता है ,,,,,आपको बधाई आ.जीतेन्द्र जी | 


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Comment by rajesh kumari on February 24, 2015 at 8:45pm

बस मातापिता का तो फ़र्ज ही रह जाता है बच्चों का कोई कर्तव्य नहीं होता ...असंवेदन शील रिश्तों को आइना दिखाती लघु कथा बहुत बढ़िया हार्दिक बधाई जितेन्द्र भैय्या  

Comment by विनय कुमार on February 24, 2015 at 1:52pm

बहुत सुन्दर और सोचने पर मजबूर करती लघुकथा , बधाई आपको..

Comment by Shyam Narain Verma on February 24, 2015 at 12:46pm
बहुत-बहुत बधाई इस शानदार लघु कथा के लिए
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 24, 2015 at 11:54am

जीतू भाई

बहुत सुन्दर कथा i व्यवहारिक जीवन में यही सत्य  दस्तूर बन गया है i बिडम्बना ही है i

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 24, 2015 at 11:18am
मार्मिक , रिश्तों के बदलते आयाम प्रस्तुत करती है यह कथा , बधाई प्रिय जितेंद्र जी , सादर।

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