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ग़ज़ल - कभी ठोकरों से सँभल गये -( गिरिराज भंडारी )

कभी ठोकरों से सँभल गये

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11212      11212     11212    11212

न मैं कह सका, न वो सुन सके, मिले लम्हें थे,वो निकल गये

मैं इधर मुड़ा, वो उधर मुड़े , मेरे रास्ते, ही बदल गये

 

तेरी यादों की, हुई बारिशों , ने बहा लिया, कभी नींद को

कभी याद हम ही न कर सके, तो उदासियों में भी ढल गये

 

कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना

कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये

 

कभी बिन पिये रही बेखुदी, कहीं लड़खड़ाये पिये बिना

कभी पी के भी रहे होश में, कभी ठोकरों से सँभल गये

 

कहीं छोड़ दी सभी कोशिशें, तो हवा की रौ ने बहा लिया

दिया हौसलों ने भी साथ जब, मेरे ख़्वाब सारे मचल गये

 

कभी ये पकड़ ,कभी वो पकड़, कभी जा इधर, कभी जा उधर

कभी तय हुये नहीं रास्ते , वो जो हाथ आये थे पल गये

 

कभी हादिसों ने रुलाया तो , कभी गमज़दों की पुकार ने

कभी बढ़ के दिल से लगा लिया, कभी आँसुओं से दहल गये

******************************************************* 

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

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Comment by maharshi tripathi on January 8, 2015 at 6:04pm

कभी हादिसों ने रुलाया तो , कभी गमज़दों की पुकार ने

कभी बढ़ के दिल से लगा लिया, कभी आँसुओं से दहल गये

बहुत सुन्दर मिसरा ,आ. भंडारी जी |

Comment by somesh kumar on January 8, 2015 at 4:10pm

हर शे'र में जीवन की लय बहती दिखी ,वास्तविकता का सुंदर बयान 

Comment by दिनेश कुमार on January 8, 2015 at 3:37pm
बेहतरीन ग़ज़ल हुई है आ. गिरिराज सर जी, वाह वाह ....!! हर शे'र उच्चकोटि का, वाह। सिर्फ 'हालतों' शब्द खटक रहा है, पता नहीं क्यूँ। सादर
Comment by khursheed khairadi on January 8, 2015 at 3:04pm

कहीं छोड़ दी सभी कोशिशें, तो हवा की रौ ने बहा लिया

दिया हौसलों ने भी साथ जब, मेरे ख़्वाब सारे मचल गये

आदरणीय गिरिराज सर , उम्दा ग़ज़ल हुई है |सादर अभिनन्दन |

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 8, 2015 at 2:23pm
कभी हालतों से सुलह भी की, कभी वक़्त का किया सामना
कभी रुक गये, कभी जम गये, कभी बर्फ बन के पिघल गये
बहुत ही सुन्दर , बधाई इस प्रस्तुति के लिए आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, सादर।

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