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वह भीगा आँचल .... (विजय निकोर)

वह भीगा आँचल

 

 

धूप

कल नहीं तो परसों, शायद

फिर आ जाएगी

अलगनी पर लटक रहे कपड़ों की सारी

भीगी सलवटें भी शायद सूख ही जाएँगी

पर तुम्हारा भीगा आँचल

और तुम अकेले में ...

 

उफ़  ...

 

तुमने न सही कुछ न कहा

थरथराते मौन ने कहा तो था

यह बर्फ़ीला फ़ैसला

दर्दीला

तुम्हारा न था

फिर क्यूँ तुम्हारी सुबकती कसक

कबूल कर जाती है कसूर

लिख-लिख कर मेरी दहलीज़ पर कुछ ...

साँकल खटकाए बगैर

आँखों ओझल हो जाती है

 

कसूर ... तो मेरा था

 

स्नेह माँगता है

धैर्य

थोड़ा और इन्तज़ार

धीरे-धीरे ही सही

आत्मज सत्यों के सहारे

आशंकाओं की छायाओं को ठेलते

जीवन के करघे पर साँसो के सूत से

बुन रहा हूँ ...  बुन रहा हूँ

तुम्हारे लिए मैं स्नेह का आँचल

जड़ देता हूँ उस पर पल-पल  तुम्हारी

खिलखिलाती हँसी, शर्मीली मुस्कराहटें

चाँदनी भी शरमाई निखर उठती थी जिनसे

 

जाने किस रहस्यमय असंसारी अपेक्षित क्षण

तुम आओ ...  तुम लौट आओ

और तुम्हारे भीगे आँचल को ले

हृदय में रिस रहे स्नेह से मैं

तुम पर यह नया आँचल ओढ़ दूँ ...

 

                -------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 959

Comment

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Comment by Priyanka singh on December 11, 2013 at 10:08pm

 

स्नेह माँगता है

धैर्य

थोड़ा और इन्तज़ार

धीरे-धीरे ही सही

आत्मज सत्यों के सहारे

आशंकाओं की छायाओं को ठेलते

जीवन के करघे पर साँसो के सूत से

बुन रहा हूँ ...  बुन रहा हूँ

तुम्हारे लिए मैं स्नेह का आँचल........

वह सर लाजवाब....... क्या शब्द दिए है आपने एहसासों को ....लाजवाब .......बहुत बहुत बधाई आपको 

Comment by Sushil Sarna on December 11, 2013 at 4:35pm

gazab ke makhmalee aihsaason men doobee apritam abhivyakti.....saral shabdon men prastuti ne ise aur bhee mohak bna diya hai...paathak ko ant tak baandhe rakhne men saksham is rachna ke liye haardik badhaaee aa.Vinay Nikor jee


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 11, 2013 at 3:03pm

मदिर मदिर  मधुर स्म्रतियों अद्दभुत अनुभूतियों से गुजरती हैं आपकी कवितायेँ जहां प्रेम की आह भी है बिछोह की कराह भी है बार बार पढने को आकृष्ट करती है प्रस्तुति ,बहुत बहुत बधाई इस सुन्दर सृजन हेतु सादर  

Comment by वेदिका on December 11, 2013 at 10:28am

तुम्हारा न था

फिर क्यूँ तुम्हारी सुबकती कसक

कबूल कर जाती है कसूर

लिख-लिख कर मेरी दहलीज़ पर कुछ ...

साँकल खटकाए बगैर

आँखों ओझल हो जाती है

 

कसूर ... तो मेरा था

हार्दिक भाव से की गयी स्वीकारोक्ति, सुकून दे गयी मन को और प्रेम को पुनर्जीवन!

हार्दिक बधाई

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on December 11, 2013 at 8:33am

आपकी रचना में भाव पूर्णत: ओस की बूँद की तरह पवित्र, सजीव  चित्रण किये हुए होते हैं, जिन्हें बार बार पढने से मन आनंदित होता है,  आपकी लेखनी को नमन, आदरणीय विजय जी, हृदय से बधाई स्वीकारें

Comment by umesh katara on December 11, 2013 at 8:03am

आदऱणीय सुन्दर भावाभिव्यक्ति से सुसज्जित रचना है बधायी 
कोमल भाव दिल को छू जाते हैं


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on December 11, 2013 at 2:53am
श्रद्धेय, कुछ भी कहने की कोशिश करना आपकी इस प्रस्तुति में निहित शबनम की बूँदों को छेड़ने के समान होगा. उसकी चमक और नमी को स्पर्श करने का सुख भोग लूँ,फिर जब धूप निकलेगी आपकी छाया को छूने का प्रयत्न करूंगा अपने असमर्थ अभिलाषा से. नमन.
Comment by ram shiromani pathak on December 11, 2013 at 12:19am

बुन रहा हूँ

तुम्हारे लिए मैं स्नेह का आँचल

जड़ देता हूँ उस पर पल-पल  तुम्हारी

खिलखिलाती हँसी, शर्मीली मुस्कराहटें

चाँदनी भी शरमाई निखर उठती थी जिनसे

 

जाने किस रहस्यमय असंसारी अपेक्षित क्षण

तुम आओ ...  तुम लौट आओ

और तुम्हारे भीगे आँचल को ले

हृदय में रिस रहे स्नेह से मैं

तुम पर यह नया आँचल ओढ़ दूँ .../////////बहुत ही सुन्दर भावाभिव्यक्ति आदरणीय विजय निकोर जी। । हार्दिक बधाई आपको 

Comment by coontee mukerji on December 10, 2013 at 7:10pm

विजय जी, आपकी रचनाएँ तपती धूप में ठण्ठी छाँव, मरूस्थल में oisis और बर्फ़ीले मौसम में उष्णता का एहसास देते है.....और क्या  कहूँ. पढ़ने के बाद आपकी रचना मन में कितने मधुर तार झंकृत कर देते है.आपको साधुवाद.

सादर

कुंती.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 10, 2013 at 6:56pm

आदरणीय निकोर  जी

एक वह  भीगा आँचल

एक जो आपने बुना

एक वह स्नेह जो थोडा धैर्य मांगता है

वह धैर्य जो उसमे न था  पर आप में है

तभी तो आप अब भी पागल है आँचल उढ़ाने को i

भगवान  ही आपकी मदद करे  i आमीन i

इस खुबसूरत अभिव्यक्ति को प्रणाम i

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