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ग़ज़ल -- मुसीबत में ही याद आते हैं राम

122-122-122-121

ये महँगाई जो बढ़ रही बेलगाम
हमारा तो जीना हुआ है हराम

तिज़ारत में हासिल महारत जिसे
उसे गुठलियों के भी मिलते हैं दाम

न जाने सभी की ये फितरत है क्यूँ
मुसीबत में ही याद आते हैं राम

रखे जो सदा हौसला और उमीद
उसी के ही दुनिया में बनते हैं काम

इसे सिर्फ़ वोटों से मतलब 'दिनेश'
सियासत कहाँ करती फ़िक्रे अवाम

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by दिनेश कुमार on April 9, 2015 at 7:20pm
शुक्रिया आदरणीय भाई शिज्जू जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 9, 2015 at 7:13pm

आदरणीय दिनेश जी बड़ी सुंदर रवाँ ग़ज़ल कही है दिली दाद कुबूल फरमायें

Comment by दिनेश कुमार on April 9, 2015 at 7:04pm

अदना से प्रयास की सराहना करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सौरभ सर जी। बह्र की बाबत आप ने मार्गदर्शन किया, बहुत बहुत आभारी हूँ आदरणीय।

Comment by दिनेश कुमार on April 9, 2015 at 7:02pm
बहुत शुक्रिया भाई krishna mishra 'jaan'gorakhpuri साहब।
Comment by दिनेश कुमार on April 9, 2015 at 7:01pm
बहुत शुक्रिया आदरणीय Shyam Mathpal जी।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 8, 2015 at 12:09am

इस सुन्र् प्रयास पर दाद कुबूल करे, दिनेश भाई ..

बहर के वज़न का आखिरी लाम मेन्शन करना कोई आवश्यक नहीं. आपने कई उलाओं में इसे नहीं निभाया है.

शुभेच्छाएँ

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 7, 2015 at 10:40am

सुन्दर गजल पर,दिली दाद कबोल करें! आदरणीय!

Comment by Shyam Mathpal on April 6, 2015 at 8:12pm

Aa.dinesh ji,

Bahut sundar .Hardik badhai.

Comment by दिनेश कुमार on April 6, 2015 at 7:40pm
अदना से प्रयास की सराहना करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय गिरिराज सर जी। आप बिल्कुल ठीक कहते हैं कि किसी भी बह्र में अंतिम मात्रा १ नहीं होती। मेरी जानकारी बहुत सीमित है आदरणीय और न ही मात्रा लिखते समय इसके बारे में सोचा। अब आप के द्वारा ध्यान दिलाने जाने पर सोचा कि वाकई आखिरी मात्रा १ नहीं होती। गलती सुधारने के लिए आप का बहुत आभारी हूँ सर। भविष्य में भी आशीष बनाए रखिएगा सर जी।
Comment by Dr. Vijai Shanker on April 6, 2015 at 7:26pm
हार्दिक बधाई।

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"हार्दिक आभार आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी"
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