दोहा पंचक. . . . . परिवार
साँझे चूल्हों के नहीं , दिखते अब परिवार ।
रिश्तों में अब स्वार्थ की, खड़ी हुई दीवार ।।
पृथक- पृथक चूल्हे हुए, पृथक हुए परिवार ।
आँगन से ओझल हुए, खुशियों के त्यौहार ।
टुकड़े -टुकड़े हो गए, अब साँझे परिवार ।
इंतजार में बुझ गए, चूल्हों के अंगार ।।
दीवारों में खो गए, परिवारों के प्यार ।
कहाँ गए वो कहकहे, कहाँ गए विस्तार ।।
सूना- सूना घर लगे, आँगन लगे उदास ।
मन को कुछ भाता नहीं, रहे न अपने पास ।।
सुशील सरना / 9-8-24
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय अशोक रक्ताले जी सृजन पर आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया का दिल से आभार । सर इंतजार में बुझ ....मेरा आशय इस बात से है कि जब परिवार संयुक्त होता है तो मुखिया को साँझ होते ही हर सदस्य के आने का इंतजार होता है साथ बैठकर भोजन करने का इंतजार होता है जो वर्तमान परिवेश में समाप्त सा हो गया है, बस कुछ ऐसा ही भाव व्यक्त करने का मैंने प्रयास किया है । दूसरे दोहे में जब परिवार बिखर गया तो कौन अपने पास रहा । यही बात कहने का प्रयास किया है मैंने सर । आपके अमूल्य सुझाव का दिल से आभार आदरणीय ।
आदरणीय सुशील सरना जी सादर, बदलते परिवेश में टूटते परिवारों की पीड़ा को स्वर देती अच्छी दोआवाली रची है आपने. हार्दिक बधाई स्वीकारें. फिर भी कुछ दोहों के भाव स्पष्ट करने के लिए कार्य करने की आवश्यकता है. सादर
टुकड़े -टुकड़े हो गए, अब साँझे परिवार ।
इंतजार में बुझ गए, चूल्हों के अंगार ।।......इस दोहे में 'इंतज़ार' किस बात का ? यह स्पष्ट नहीं है.
सूना- सूना घर लगे, आँगन लगे उदास ।
मन को कुछ भाता नहीं, रहे न अपने पास ।।........इस दोहे का अंतिम चरण 'रहे न अपने पास' किस लिए कहा गया है स्पष्ट नहीं हो रहा है. सादर
आदरणीय दयाराम जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी ।
आदरणीय सुशील सरना जी, वर्तमान हालात पर सुंदर सामयिक दोहे। बधाई स्वीकार करें।
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