सिंदूर की लालिमा (अंतिम भाग )........ गतांक से आगे.......
मेरा मन सिर्फ मनु को सोचता था हर पल सिर्फ मनु की ख़ुशी देखता था हर घड़ी अन्जान थी मैं उन दर्द की राहों से जिन राहों से मेरा प्यार चलकर मुझ तक आया था ! मेरे लिये तो मनु का प्यार और मेरा मनु पर अटूट विस्वास ही कभी भोर की निद्रा, साँझ का आलस और रात्रि का सूरज, तो कभी एक नायिका का प्रेमी, जो उसे हँसाता है, रिझाता है और इश्क़ फरमाता है, कभी दुनियाभर की समझदारी की बातें कर दुनिया को अपने…
ContinueAdded by sunita dohare on May 16, 2015 at 1:30am — 2 Comments
मेरी कल्पनाये हर पल सोचतीं है, व्यथित हो विचरतीं हैं
बैचेन हो बदलतीं हैं, दम घुटने तक तेरी बाट जोहती हैं
लेकिन फिर ना जाने क्यूँ, तुझ तक पहुँच विलीन हो जातीं है
सारी आशाएं पल भर में सिमट के, दूर क्षितिज में समा जातीं है
एक नारी मन की भावनाएं उसकी कल्पनाओं में सजती और संवरती है और उन कपोल कल्पित बातों को एक कवि ही अपनी रचना में व्यक्त कर सकता है मेरे कवी मन ने भी कुछ ऐसा ही लिखने की सोची और फिर शुरू हुई कलम और कल्पना की सुरमई ताल ! लेकिन मन ना लगा तो मैं बाहर निकल आई…
Added by sunita dohare on May 14, 2015 at 12:30am — 7 Comments
पापा तुम बहुत याद आते हो ..
समय की बेलगाम रफ़्तार ने
पापा आपकी छत्रछाया से
साँसों के प्रवाह से
आपको मुक्त कर दिया
दुनिया कहती हैं कि ईश्वर है कहाँ ?
शायद दुनिया पागल हैं
पर पापा आप ही तो ईश्वर का रूप हो
मुझसे पूछे ये दुनिया, जब पिता नहीं होते
तो ईश्वर के नाम से जाने जाते है
आपके जाने के बाद
तमाम कोशिशों के बावजूद
सामने की दीवार पे
आपकी तस्वीर नहीं लगा…
Added by sunita dohare on April 29, 2015 at 1:30pm — 14 Comments
किरणें चित्र उकेरें अँगना, है प्रीत तेरी हमें बांधन निकली
धरती का मैं लहंगा सिला लूँ, हरियाली की पहनूं चोली
अम्बर की बन जाए ओढ़नी, देखूं फिर नववर्ष रंगोली
तारों की मैं माला गूंथुं, चाँद बने बिंदिया की रोली
बने चांदनी मेरी मेहँदी, सज जाए मेरी भी हथेली
नेह झड़ी की आस लगाए, सुलगी जाए मरी दूब हठीली
सूरज को मैं बांधू राखी, फिर घोलूं किरणों की शोखी
बन जाए मेरा भाई सूरज, सज जाए मेरी भी डोली.....
केसर रंग में मांग सजाऊं, देख घटा की अलक…
ContinueAdded by sunita dohare on January 26, 2015 at 2:30pm — 14 Comments
हां मैं एक पुरुष हूँ और अगर मैं एक पुरुष हूँ !
तो मुझे बनना भी चाहिए उस पुरुष की तरह
जो बेरोजगारी की भेंट चढ़कर, अपने फर्ज़ निभाता रहे,
सुबह से शाम तक रोजी रोटी की जुगाड़ में
जैसे हो कोई जादूगर, जिसके हांथों में हो गरीबी का हुनर
टूटी चप्पलें और घिसते पेंट की मोहरी से, झलके उसकी गरीबी
और ये नाक वाले नेता, छीन सके हम गरीबों के मुंह का निवाला
और कह सकें “तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हे नौकरी दूंगा”
जैसे हम गरीब हों बिना पेट के पुतले, पेट हो जैसे मेरा एक…
Added by sunita dohare on January 1, 2015 at 1:00am — 9 Comments
चाहें पिया का हो घर परदेश में, पीहर तो मेरा है, तेरा घर कृष्णा !!
मोहब्बत का पहला पयाम कृष्णा, उगता हुआ सा जैसे चाँद कृष्णा !
बिन तेरे महफ़िलों में नूर नहीं है, मोहब्बत का तुझे है सलाम कृष्णा !!
सर पे रखा हो जैसे दस्ते खुदा, मंजिल-ए-इश्क है राधेनाम कृष्णा !
मुझे तो नदिया की धार सा लगे, जैसे रिश्तों का घुला जाम कृष्णा !!
मुझे मिल जाए बस तेरी दुआ, तू है सबकी निगाहों का प्यार कृष्णा !
माँ का दुलार, पिता का प्यार सा लगे, मेरे लिए तो भाई का दुलार कृष्णा !!…
Added by sunita dohare on September 4, 2014 at 7:00pm — 12 Comments
यही कोई 40 से 45 के बीच की रही होगीं वो गठीला बदन, घने काले बाल थ्री स्टेप में कटे हुए, माथे पर सुर्ख लाल बिंदी उनके चेहरे की खूबसूरती को और भी बढ़ा रही थी हलकी हवा के झोके से उनके बालों की लटकती हुई लट लयमान होकर मानो उनके चेहरे को पूरी तरह से ढकना चाह रही हो उनके एक ओर शून्य में एकटक निहारने की कोशिश जो बरबस उनकी तरफ मुझे आकर्षित कर रही थी उनके व्यक्तित्व को देखकर कोई भी ये महसूस कर सकता था कि उनके चेहरे पर प्रकति ने स्थाई रूप से मुस्कुराहट और प्यार चिपकाए होंगे लेकिन वक्त के थपेड़ों ने…
ContinueAdded by sunita dohare on July 19, 2014 at 5:30pm — 9 Comments
बूढ़े बरगद की आँखें नम हैं
गाँव-गाँव पे हुआ कहर है, होके खंडहर बसा शहर है
बूढा बरगद रोता घूमे, निर्जनता का अजब कहर है
नीम की सिसकी विह्वल देखती, हुआ बेगाना अपनापन है
सूखेपन सी हरियाली में, सुन सूनेपन का खेल अजब है
ऋतुओं के मौसम की रानी, बरखा रिमझिम करे सलामी
बरगद से पूंछे हैं सखियाँ, मेरा उड़नखटोला गया किधर है
सूखे बम्बा, सूखी नदियाँ, हुई कुएं की लुप्त लहर है
निर्जन बस्ती व्यथित खड़ी है, पहले…
Added by sunita dohare on July 4, 2014 at 9:00pm — 5 Comments
फिर वही कहानी “नारी व्यथा”
आज फिर सुर्ख़ियों में पढ़कर एक नारी की व्यथा,
व्यथित कर गयी मेरे मन को स्वतः
नारी के दर्द में लिपटे ये शब्द संजीव हो उठे हैं
इस समाज के दम्भी पुरुष
कभी किसी दीवार के पार उतर के निहारना
नारी और पुरुष के रिश्ते की उधडन नजर आएगी तुम्हे
कलाइयों को कसके भींचता हुआ, खींचता है अपनी ओर
बिस्तर पर रेंगते हुए, बदन को कुचलता है
बेबसी और लाचारी में सिसकती है,
दबी सहमी नारी की देह पर ठहाकों से लिखता है, …
Added by sunita dohare on July 1, 2014 at 1:30am — 19 Comments
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