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सिन्दूर की लालिमा ( पहला हिस्सा )

मेरी कल्पनाये हर पल सोचतीं है, व्यथित हो विचरतीं हैं

बैचेन हो बदलतीं हैं, दम घुटने तक तेरी बाट जोहती हैं 
लेकिन फिर ना जाने क्यूँ, तुझ तक पहुँच विलीन हो जातीं है
सारी आशाएं पल भर में सिमट के, दूर क्षितिज में समा जातीं है
एक नारी मन की भावनाएं उसकी कल्पनाओं में सजती और संवरती है और उन कपोल कल्पित बातों को एक कवि ही अपनी रचना में व्यक्त कर सकता है मेरे कवी मन ने भी कुछ ऐसा ही लिखने की सोची और फिर शुरू हुई कलम और कल्पना की सुरमई ताल ! लेकिन मन ना लगा तो मैं बाहर निकल आई कहने को बात कुछ विचित्र जरुर है लेकिन आज की शाम कुछ अटपटी सी है जैसे जेठ की भरी दोपहरी के बाद एक विचलित करती हुई उदास शाम हो जिसने नस नस में एक थकान सी भर दी हो ! बड़ा बेजान सा माहौल था तीखी धूप में हवा बौरा सी गयी थी बेरहम हवा रह रह कर उन बेजान पत्तियों को दूर धकेल रही थी जो अपनी डाल से टूटकर बेघर हो चुकी थी लम्बे शिरीष के दरख्त कतारों में खड़े अपनी हाजिरी दे रहे थे मैंने जी भरकर धूप को कोसा ! पहाड़ी इलाकों कभी भी  धूप और कभी भी बारिश हो जाती है दूर पहाड़ी पर बारिश हो रही थी ऊँचे ऊँचे भूर्ज के पेड़ मन को भले लग रहे थे मेरा मन किया क्यूँ ना आज वहां जाया जाये दूरी काफी होने के कारण ऑटो की सवारी लेकर में उस पहाड़ पर उसी चोटी पर थी जहां अब बारिश मध्यम हो चुकी थी एकांत पाकर मैं अपनी भावनाओं को समेटने लगी साथ ही सफ़ेद पन्ने पर शब्द उभरने लगे एक अजीब सी कशमकश थी मन में !.......

याद है मुझे तुमसे मिलने से पहले मेरी रातें अक्सर उदास रहा करतीं थी उनमें न ही वो सुकून था और ना ही पलकों के आस पास नींद के घेरे ! था तो बस एक गहरा सन्नाटा जिसमें कोई हलचल ना थी एक दिन अचानक तुमने मेरी जिन्दगी में दस्तक दी और बन बैठे मेरे दिल के मालिक ! बस अब तो हर सुबह तुम्हारी आवाज़ सुनकर और हर शाम तुम्हारी यादों मे गुजरने लगी !
मुझे आज भी याद है देहरादून जाने के लिए हमने चुनी थी वो सुबह जो धुंधलके से सराबोर थी हल्की बारिश की बौछारें कार की छत पर लगकर मधुर संगीत की तान छेड़ रही थी तेरा साथ मेरे लिए जितना महत्वपूर्ण था उतना ही कार ड्राइव करते हुए तेरा मुझे देखकर बार बार मुस्कराना और उस गीत को गुनगुनाना जिसके बोल थे “दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया, हमें आपसे  से भी जुदा कर चले” और में तुममे खोई अपने भविष्य को निहार रही थी हम दोनों अपनी प्राइवेट कार से ऑफिस के काम से जा रहे थे चूँकि हम दोनों एक ही ऑफिस में कार्यरत थे तो अक्सर एक साथ ही जाते थे देहरादून में तुम्हारी दीदी भी रहा करतीं थी मुझे ये बात पता नहीं थी अचानक तुमने दीदी के घर के सामने गाड़ी रोक दी और कहा चलो सुनी तुम्हे किसी से मिलवाता हूँ गाड़ी के आवाज़ सुनकर वो स्वयं बाहर निकल आई थी तुम दौड़कर अपनी दीदी के गले लगकर करीब दो मिनट तक रोये मैं कुछ समझ ना पाई बेबस सी लाचार खड़ी इस नजारे को देख रही थी मैं समझ नहीं पा रही थी कि आखिर ये है कौन ? खैर थोड़ी देर बाद वो हम दोनों को अन्दर ले गई एकदम से शांति हो गई दीदी प्रश्नसूचक निगाहों से मुझे देखे जा रहीं थी और तुम हस रहे थे आखिर मनु ने मुझसे कहा इनके चरण स्पर्श करो मैं यन्त्रवत सी चरणों में झुक गई काफी समय गुजरने के बाद तुम दीदी के गले लगकर बोले थे दीदी ये है मेरी पसंद तुम मिलना चाहती थीं बताओ कैसी है... सुनते ही दीदी ने मुझे गले से तो लगाया लेकिन मुझे साफ़ दिख रहा था कि दीदी के अन्दर कुछ सुलग सा रहा था बस फर्क इतना पड़ा था कि दीदी मनु के ये बात बताने के पहले अपने आपको असहज महसूस कर रह थीं वो अब सामान्य थीं ! ऑफिस का कार्य पूरा करने के बाद सारा परिवार हमारे साथ घूमने गया लेकिन मैं वहां अपने आपको सहज नहीं कर पा रही थी ना जाने मुझे क्यूँ डर सा लग रहा था एक अनजाना भय मुझे सता रहा था जब शाम हुई तो दीदी बोली चलो बाहर सडक पर थोडा टहलते हैं मनु और दीदी के साथ मैं भी बाहर निकल आई लेकिन दीदी मनु से कुछ धीरे धीरे कहने की कोशिश कर रहीं थी ये देखकर मैं वहां से सामने ही सडक पर अकेली थोड़ी दूर तलक चली गयी ताकि उनको बात करने का मौका मिल जाये, मनु ने मुझे जब जाते देखा तो उस समय तो कुछ नहीं बोले लेकिन थोड़ी देर बाद मेरे पास आकर बोले सुनी तुम मेरी निगाहों से दूर मत जाया करो, तुम चली जाती हो तो ऐसा लगता है जैसे मेरे प्राण कोई खींचकर ले जा रहा है मनु की आँखों के कोरो में छुपे आंसूं मैंने देख लिए थे वो कुछ छुपाने की कोशिश कर रहे लेकिन उन आसुंओं की कीमत चुका पाना मेरे वश में नहीं था फिर भी मैं मनु के मुंह से सुनना चाह रही थी और इसी बजह से में एकांत ढूढ रही थी लेकिन पूरा परिवार उन्हें घेरे हुए था दूसरे दिन हम वापिस दिल्ली के लिए चल दिए ! रास्ते मैं मैंने मनु से कुछ न पूंछा कारण मैं मनु को फिर से दुखी नहीं देखना चाहती थी पूरे रास्ते मनु मुझे गाने सुनाकर मेरा मूड फ्रेश करने की कोशिश करते रहे लेकिन मैं इतनी जल्दी कहाँ आश्वत होने वाली थी !
और वही हुआ जिसका मुझे डर था मनु मुझसे कटे कटे से रहने लगे मैं फोन करती तो कह देते अभी बिजी हूँ ऑफिस में देखकर अनदेखा कर देते ज्यादातर मुंबई की बिजिट करने चले जाते, मेरे ऑफिस में आने से पहले ही किसी न किसी प्रोग्राम को कवर करने चले जाते ! मैंने इसे कुदरत की नियति समझ लिया और मनु से दूर रहने की कोशिश करने लगी एक दिन मनु की दीदी का फोन आया l  साफ़ और सीधे शब्दों में उन्होंने कहा, कि सुनी मनु को भूल जाओ वो तुम्हे कभी नहीं मिल सकता ! मैं अब तक सब समझ चुकी थी मैंने कहा... दीदी चरण स्पर्श ! आपके आदेश का पालन करूंगी अब आपको शिकायत का मौका नही मिलेगा ! मेरा इतना कहना था कि दीदी ने कहा मुझे तुमसे यही उम्मीद थी, खुश रहो और फोन काट दिया ! अब दीदी को मैं कैसे बताती कि आपने ख़ुशी तो दूर कर दी फिर खुश कैसे रहूँ ! जीवन में इतना कष्ट इतनी जिल्लत कभी सोचा ना था मैंने ! मुख से सिसकियाँ भले ना निकले लेकिन आँखों के बहते आंसू मेरी लाचारी की सारी कहानी बया कर रहे थे. मैंने अपनी राहें बदल ली और तुमसे दूर दूसरे शहर में चली आई ! पहाड़ी के टॉप पॉइंट पर बैठकर लिखते लिखते पता ही नहीं चला कब अँधेरा हो गया हलकी हवा के झोंके कुछ कहने की कोशिश कर रहे थे रात कुछ गहरा सी चली थी इसलिए मैं उठकर पैदल ही चल दी !
देर अँधेरे घर पहुंची तो माँ की झिडकी सुनने को मिली “इतनी देर तक घर से बाहर मत रहा करो समय से घर आ जाया करो” मैं बस मुस्कराकर रह गई थी !
कभी कभी सोचती हूँ कि इस समाज की परम्पराओं ने बेबसी और लाचारी का नकाब पहना कर महानता की उस पर जिल्द चढ़ा दी,  ज़िन्दगी को एक दर्द की चादर ओढ़ा कर एक सुनहरी किताब बना दी ! सिसकते रहे इन आँसुऔं के बोझिल पन्ने जब लिखावट सूख गई, तो उन्हें जला दिया..... कभी उन्हैं बेतरतीबी से पलटा, तो कभी उन्हैं राहों मैं बिछा दिया, कभी मोहब्बत के अल्फ़ाज़ लिखकर नफरत की भैंट चढ़ा दिया ! सिद्दत-ए-दर्द जब बढ़ता गया, तो इस खामोशी ने लफ्जों का रूप ले लिया ! जब खामोशियाँ बोलने लगी तो व़क्त ने करवट ली और करीब दो सालों के बाद तुम एक बार फिर मेरे सामने आ गये ! मोदी जी की 19 अक्टूबर को कानपुर के गौतमबुध पार्क में आयोजित विजय शंखनाद रैली की कवरेज़ में मेरा जाना हुआ और वहीँ तुम भी इसी रैली को कवर करने आये थे बहुत थके से और कमजोर लग रहे थे तुम ! मैं देखकर अनदेखा करते हुए रैली की समाप्ती के बाद घर वापस आ गयी थी मन में एक हलचल सी मची हुई थी दिल और दिमाग में कशमकश सी थी दिल कहता था एक बार फोन करूँ और दिमाग कहता था नहीं सुनी ये ठीक नहीं है आखिर्कार्र दिमाग की जीत हुई और मैंने अपने दिल को हल्का करने के लिए वो डायरी निकली जिसेमें मैं अपने साथ गुजरे पलों का हिसाब रखा करती थी...बड़ी कशमकश थी जब मैंनें लिखने के लिये अपनी कलम उठाई तो सब कुछ अजीब सा लग रहा था मन कुछ अशांत था लेकिन मेरी कलम खुद ब खुद कोरे कागज पर मोती की तरह शब्दों को बिखेर रही थी गुजरे हुए लम्हों को मैं याद करती गई........ उस दिन तुमने ही एक कागज पर लिखकर मेरे असिस्टेंट के द्वारा मुझ तक भिजवाया था लिखा था कि  एक मासूम सी, सांवली सी अल्हड लड़की दुनिया से बेखबर अपनी ही धुन में रहने वाली ये सुनी आज उदास क्यूँ है ? आज इतनी खामोश सी गुमसुम क्यूँ बैठी है ! इस पवित्रता की मूरत के चेहरे पर उफ़ ये कैसी तड़फ है ? दर्द की स्याही से भरे सुनी के शब्द जो सिर्फ एक लाइन में पूर्ण हो जाते हैं तड़फ कर ये कहने वाली कि प्रिय मुझे तुमसे बेइन्तहां प्यार है........वो मेरी निगाह में वो एक महान पुजारिन है ? कुछ तो है आज, मेरे आने की खबर भी नहीं, जनाब जरा उठकर यहाँ आइये !
एक अनजाना “मनु”
तुम्हारे लिखे पत्र को पढने के बाद मुझे कुछ समझ न आया था क्यूंकि दिल और दिमाग पर तो मेरे तुम ही छाये रहते थे मेरे कदम आसमान की सैर करना चाह रहे थे क्यूंकि मन मांगी मुराद पूरी हो गई थी ! मैं अपने आपको किसी स्वर्गलोक की अप्सरा से कम नहीं समझ रही थी, मैं भी अपने प्रियतम का तन-मन-धन से सहयोग देना चाहती थी !  लेकिन किसी ने खूब कहा है कि....
उसे कोई कैसे बचाए टूट जाने से, ये दिल जो बाज न आये फरेब खाने से
तेज़ हवा तो लगता है सहमा सा, वो एक चिराग जो बुझता न था बुझाने से..
मेरी इबादत और तुम्हारी बफा ने बजरंगबली के चरणों का सिन्दूर भी माथे पर सजाया लेकिन वो भी अपना रंग नही दिखा पाया! मैंने बजरंगबली को साक्षी मानकर तैयार किया प्रेम का अग्निकुण्ड और खुद हवन कुण्ड में अर्पित हुई, स्वाहा के साथ ! जिन्दगी यूँ ही अनवरत चल रही थी आगे की ना मैं जानती थी ना तुम, बस दिन बीत रहे थे सुखों की बौछार में दुखों का कहीं नामोनिशान ना था तुम और तुम्हारी बातें बस यही मेरा स्वर्ग था लेकिन........
क्रमशः.........
मौलिक एवं अप्रकाशित
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक
इन्डियन हेल्पलाइन न्यूज़

 

 

 

 

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Comment by Saurabh Pandey on May 26, 2015 at 11:07pm

काव्यमय प्रवाह के कारण प्रस्तुति रोचक हो गयी है. अगले अंक की प्रतीक्षा में आगे बढ़ रहा हूँ. हार्दिक शुभकामनाएँ,
शुभेच्छाएँ

Comment by sunita dohare on May 18, 2015 at 2:54pm

 vijay nikore जी , "सराहना के लिए ह्रदय से आभार आदरणीय " सादर नमस्कार 

Comment by vijay nikore on May 18, 2015 at 3:23am

मार्मिक भाव इस संस्मरण की विशेषता हैं। अति सुन्दर । 

Comment by sunita dohare on May 16, 2015 at 4:36pm

जितेन्द्र पस्टारिया  जी , नमस्कार    आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल शुक्रगुजार हूँ आपका बहुत -बहुत धन्यवाद"

Comment by sunita dohare on May 16, 2015 at 3:49pm

Hari Prakash Dubey जी , "सराहना के लिए ह्रदय से आभार आदरणीय " सादर नमस्कार 

Comment by Hari Prakash Dubey on May 16, 2015 at 9:33am

बहुत बढ़िया  लेखन आदरणीया सुनीता दोहरे जी , बधाई ! सादर 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 14, 2015 at 11:08am

एक भावनात्मक संस्मरण. बहुत अच्छा लिखा आपने, आदरणीया सुनीता जी. समय के साथ-साथ जीवन की निरंतरता, ऐसी कई यादों के बाबजूद भी हमें सकारात्मक सोचने पर मजबूर करने लगती है. प्रस्तुति पर बधाई आपको

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