सिंदूर की लालिमा (अंतिम भाग )........ गतांक से आगे.......
मेरा मन सिर्फ मनु को सोचता था हर पल सिर्फ मनु की ख़ुशी देखता था हर घड़ी अन्जान थी मैं उन दर्द की राहों से जिन राहों से मेरा प्यार चलकर मुझ तक आया था ! मेरे लिये तो मनु का प्यार और मेरा मनु पर अटूट विस्वास ही कभी भोर की निद्रा, साँझ का आलस और रात्रि का सूरज, तो कभी एक नायिका का प्रेमी, जो उसे हँसाता है, रिझाता है और इश्क़ फरमाता है, कभी दुनियाभर की समझदारी की बातें कर दुनिया को अपने समझदार होने की दिलासा देता हुआ मनु का साथ ही मेरे उन सभी क्षणों का साथी बन गया था ! लेकिन मनु काफी बिजी रहते थे उनके पास इतना समय नही होता था कि चौबीस घंटों में से दो पल मेरे लिए भी फिक्स कर देते लेकिन मैं कोई न कोई बहाना बनाकर उनके व्यस्त जीवन से समय छीन ही लेती थी. स्क्रिप्ट लिखने में कभी कभी मुझे कुछ पॉइंट समझ नही आते तो मैं मनु की मदद ले लिया करती थी और फिर मनु इस तरह से समझाते और मैं समझने का बहाना करके उनका चेहरा निहारती रहती अक्सर मैं ना समझने का नाटक भी करती और ऐसा इसलिए करती कि थोड़ी देर ही सही मनु मुझे समय दें ! रोज की तरह उस दिन भी मनु जैसे ही ऑफिस आये मैंने यही बहाना बनाया तो मनु एकदम मुझ पर झल्ला पड़े और बोले कोई खबर रहती है तुम्हे, मुझ पर क्या गुजर रही है तुमे क्या फर्क पड़ता है, तुम्हे तो बस पॉइंट और पॉइंट बस पॉइंट ! कभी सोचा है तुमने किन हालातों से मैं गुजर रहा हूँ मनु देर तक गुस्साते रहे और में उनके केबिन से निकल अपने केबिन में आ चुकी थी मेरा मूड बहुत खराब हो चुका था उस समय मेरा उनसे बात ना करना ही ठीक था मैंने सोच लिया था बिना बात के मनु का इतनी तेज़ गुस्सा करना मुझे उचित न लगा इसलिए ये सब होने के बाद मैंने ऑफिस से छुट्टी ली और मम्मी के पास कुछ दिन के लिए आ गयी थी साथ ही अपने फोन को भी स्विच ऑफ कर लिया था ! उन दिनों मनु से मेरा कोई कॉन्टेक्ट नहीं रहा करीब आठ दिन बीत जाने के बाद में वापस ऑफिस आई तो पता चला कि मनु भी उसी दिन से छुट्टी पर हैं एक अनजानी आशंका से मन काँप गया ! मेरी दोस्त भावना मनु की दूर की बहिन लगती थी इसलिए मनु की मम्मी से उसकी अक्सर बात होती रहती थी और भावना के जरिये मुझे मनु के साथ गुजरी हर बात पता चलती रहती थी ! भावना से बात करने पर जो पता चला उसके लिए मैं कदापि तैयार नहीं थी लेकिन हालतों से समझौता करना ही मैंने उचित समझा इसलिए में चुप हो गई ! खैर मनु ने पूरे बीस दिन की छुट्टी के बाद ऑफिस ज्वाइन किया ! मैंने मनु पर ये कभी उजागर नही होने दिया कि मैं उनके साथ हो रही हर बात से वाकिफ हूँ ! कभी-कभी मनुष्य खामोश रहकर भी बहुत कुछ कह डालता है. लेकिन ख़ामोशी को समझ पाना सबके बस की बात नहीं. तरह-तरह के भाव मन में हिलोरे मारते जिस प्रकार समुन्दर की लहरे कभी उठती कभी गिरती मेरे मन के भाव भी उठते-गिरते ! कभी कोई विकल्प दिखता तो तुरंत संकल्प उठता कि एक बार मनु से विनती जरुर करुँगी कि मेरा प्यार मेरा हक़ मुझे लौटा दो, लेकिन व्यथित मन गवाही न देता... जीवन एक ढरे् की तरह चल पड़ा था ! सुख की तरह दुख भोगने की आदत सी पड़ गयी थी ! लेकिन मैंने बिना पृतिकार के एक लंबा अरसा गुजार दिया ! भूतकाल एक बार नहीं अनेकों बार वर्तमान को झणिक सुख की गर्मी व नरमी देने आ जाता है ! जीवन पीछे लौट जाना चाहता था पर हजारों मींलों का फासला वापस तय करने के लिये उतनी हिम्मत जुटा पाना हर एक के बस में नहीं ! उस दिन सुबह से आसमान बादलों से भरा था खिड़की दरवाजों और परदों पर गीली-गीली हवा थपेड़े मार रही थी माहौल में अजीब सा भारीपन तैर रहा था जब भी बादल आकाश को अपनी मुठ्ठियों में कैद कर लेते हैं तभी ना जाने क्यों मेरी आत्मा सुलगने व चटखने लगती है ! सुबह से उस मेघ भरे बैंगनीं अंधेरे में एक उभरती हुई आकृति कुछ रहस्यमयी लग रही है जैसे कोई रूहानी ताकत मुझसे कुछ कहना चाहती है. बैचेन मन में एक के बाद एक तर्ज उठ रहे थे अब समझ आ रहा था उसका दर्द, उसकी तड़फ, उसकी बैचेनी ! मेरे मन में एक सवाल बार-बार उठ रहा था कि मनु का अब क्या हाल होगा ? मन और दिल की जद्दोजहद जारी थी कभी दिमाग जीत जाता कभी दिल ! पर कोई निष्कर्ष नहीं निकल रहा था इन हालातों में मेरे दिमाग पर हावी हो रहीं थी वो बैचेन इश्क की कहानी जो हर आशिक की अधूरी ही होती है या यूँ कह लें कि झूठी होती है वैसे मेरे लिए उन बातों का कोई महत्व नहीं रहा न जाने कितने ज्ञान बैराग्य को बढाने वाले शास्त्र पढ़े थे सब तेरे इश्क की किताब के आगे बेकार हो गये इच्छा व आशाओं के प्रबल बेग ने प्रभु की इबादत में कहे जाने वाले ज्ञान को चादर तान कर सुला दिया था मन उत्साह व उमंगों से भरकर हजारों रंगों की हसरतों को ह्रदय में धारण करके तेरी दुनियां में समाना चाहता था अपनी आँखों में तेरे दीदार की हसरत लिए वक्त के भयंकर से भी भयंकर रुख को भी बदलने का साहस रखना जानती थी मैं, और बदल सकती थी तेरी दुनिया की रस्मों रिवाज को, लेकिन तूने कभी ना पूछा कि क्यों चुप रही मैं ?
अपनी व्यथा को जब मैंने भावना से कहा जो कि मेरी अत्यन्त करीबी सहेली थी, तो उसका एक ही जवाब था कि सुनी तुम ये शहर छोड़ दो अगर तुम यहाँ रहोगी तो मनु के परिवार के साथ साथ तुम्हारे लिए भी ठीक नहीं होगा और अगर दूर रहोगी तो धीरे धीरे सब ठीक हो जायेगा ! सुनी ये सच है कि बिना दूर जाए मनु की जिन्दगी की कडुवाहट कम नहीं होगी ! मुझे उसकी राय अच्छी लगी और मैंने जाने का फैसला कर लिया ! मेरे तबादले की बात मनु को जब पता चली तो वो सीधे मेरे केबिन में आकर तमतमाते हुए बोले, “सुनी तुम मेरी नजरों के सामने रहोगी इसे चाहे जैसे मैनेज करो मुझे नही पता, बस ये बात कान खोलकर सुन लो कि तुम्हे मेरे सामने हमेशा रहना है, फिर चाहें तुम मुझसे बात करो या न करो” अजीब कशमकश में पड़ गई थी मैं लेकिन मैंने अपना फैसला ना बदला ! मुझे ये पता था कि जब मनु को पता चलेगा तो यही होगा इसलिए मैं इस बात को लेकर तैयार थी ! उस दिन मैंने महसूस किया तुम ठीक उसी अंगारे की तपन महसूस कर रहे हो जो जलते हुए किस तरह हो जाता है सिन्दूरी, जब होता है वो अपने पूरे शबाब पर, मुझे पता है सुलगना है उसकी नियति और सुलगता है वो घुट-घुट कर और फिर बन जाता है बुझी हुई ठंडी एक राख का ढेर मात्र ! मैंने उस दिन देखा था तुम्हें ठीक उसी अंगारे की तरह जलते हुये कैसे हो गये थे तुम अधीर , बेबस तुम्हारा अधैर्यपन दिखा था ये सुनकर तुमने तो जैसे खत्म ही कर दी थी अपने जीने की जिजीविषा ........
क्या सचमुच इतनी अनमोल थी मैं या अर्थ में तौल रहे थे तुम मेरे प्यार को ! बड़े अरमानों से चंद मुठ्ठी खुशियाँ खरीदने चले थे तुम मेरी खुशी के लिए, लेकिन मनु क्या तुम भूल गये थे कि क्या तुम्हारे बिना मेरा जीवन मेरा था ! तुमने तनिक न सोचा कि वो भी हुई होगी उतनी ही विकल ! तुम्हें क्या पता था कि तुम्हारे जीवन की सच्चाई में जान चुकी हूँ तुम्हारा वो मासूम सा ग़मगीन चेहरा देखकर मुझे कुछ पंक्तियाँ याद आ गई थी........
“समझौते स्वीकार हैं मुझको , एक दफ़ा फ़रियाद तो कर
मैं तो सब कुछ सह लूंगी, तू मुझ बिन जीने की बात तो कर”
आखिरकार वो घडी आ ही गई जब मनु के शहर को सलामी देने का वक्त आ गया, उस दिन मैंने मनु से आखिरी बार मिलने की सोची और मैं चल पड़ी उस ओर जिधर से वापस आकर फिर कभी जाना नहीं था ! अब तुम मेरे ठीक सामने खड़े थे ! मनु ने कहा, “अब क्यूँ आई हो यहाँ , जब तुमने जाने का फैसला ले ही लिया है तो फिर मैं कौन होता हूँ ? मेरी चिता को सुलगते देखने में तुम्हारे दिल को जो सुकून मिलेगा उसकी आंच तुम्हे जिन्दगी भर खुश नही रखेगी ! जाओ चली जाओ यहाँ से फिर कभी मत आना मेरी जिन्दगी में” ! स्थिती की नजाकत को देखते हुए मैंने मनु से हँसते हुए कहा कि मनु सिर्फ एक साल की बात है घर में कुछ प्रोब्लम है सब कुछ ठीक होते मैं वापस आ जाउंगी ! ये कहते हुए मेरी जुबान तनिक ना लड़खड़ाई क्यूंकि मैं मनु को दुखी नहीं देखना चाहती थी मैंने कहा मनु तुम जानते हो मुझे मम्मी के पास अपने घर में रहने को भी तो मिल रहा है मेरी दिली इक्षा है कि मैं मम्मी के साथ अपनी हर सुबह अपनी हर शाम गुजारूं ! तुम मेरी खुशियों को मेरी आँखों में पढने की कोशिश कर रहे थे और मैं सोच राही थी कि प्रिय कैसे रोका है तुमने अपने इन कपकंपाते होंठों को जो सिर्फ मेरा नाम अपनी जुबां पर लाते हैं कैसे संयत की होगी अपने चेहरे की वो भाव भंगिमा जो हर सिकन का पल में हाल-ए-दिल बयां कर देती थी कैसे भूलूं तुम्हारे अंदर के उस उम्दा कलाकार और बेहतरीन अदाकारी को जिसने एक ही पल में दिखा दिया था अपने अंदर के उस बेजोड़ कलाकार को !
वो दृश्य, ठीक किसी चलचित्र की भांति मेरी आँखों में आज भी जीवंत हो उठते हैं, मेरी नजरों से नजरें मिलते ही छलक गई थी तुम्हारी आँखों से वो मोतियों की अनमोल बूँदें, जो ना जाने कब से कैद थी तुम्हारे पलकों के बीच और तुम मेरी ओर देखते रोते रहे थे अविरल और निर्बाध ! मेरे प्रश्न करते असहाय से चेहरे को जब तुमने देखा ! क्यों बहुत ही अजीब अंतर्द्वंद में फंस गये थे ना तुम, तुम सोच रहे थे कि सुनी को कैसे बताऊं कि “जो फेरे लेते ही मुझे बरसों पहले छोड़कर जा चुकी थी जिसने कभी पलट कर न मेरे बारे में सोचा था वो बेबफा अपने दूसरे पति के मरते ही अब मेरी माँ का विश्वास पा वापस आ गई है”
मेरे ये कहने पर कि रोने की क्या जरूरत है तो तुमने हौले से अपना सर उठाते हुए सिर्फ दो शब्द कहे थे “कुछ नहीं सुनी, बस आज रोने का मन कर रहा था तो जी भर कर रो लेने दो क्योंकि तुमने देख ली थी मेरी आँखों की वो चमक अपनी आँखों में और जिसे तुम किसी भी कीमत पर मद्धम नहीं होने देना चाहते थे प्रिय तुम्हारा वो आत्मविश्वास फिर से जी उठा क्योंकि तुम समझते थे कि सच्चाई मुझे पता नहीं है मैंने तुम्हारी आँखों में देखकर कहा था कि प्रिय जल्दी ही वापस आउंगी मेरा इन्तजार करना .....मेरे इन दो शब्दों ने, तुमहारी भोली उन दो आँखों में फिर से भर दिया था आत्मविश्वास और तुम चल पड़े थे उस डगर से अपनी मंजिल की तरफ फिर से अपने माँ के सपनो को पूरा करने जिनकी जिद ने तुम्हें जीवन भर दर्द दिया ! और मैं उस दोराहे पर खड़ी थी जहां से न कोई मंजिल दिखती थी न कोई रास्ता, न कोई उम्मीद, न कोई सहारा, था ! अगर था तो बस एक इन्तजार, इन्तजार, इन्तजार !!!! तुमने अपनी माँ की इक्षा के लिए मोहब्बत कुर्बान कर दी इसलिए
मनु मुझे गर्व हैं तुम पर और अपनी माँ के प्रति तुम्हारा असीम स्नेह अगाध श्रधा और प्रेम देखकर !............समाप्त !!!!
मौलिक एवं प्रकाशित
सुनीता दोहरे
प्रबंध सम्पादक
इण्डियन हेल्पलाइन न्यूज़
Comment
Saurabh Pandey जी, सर ऑफिस वर्कलोड ज्यादा होने के कारण अपनी रचना को अच्छे से प्रस्तुत नही कर पाई, इसके लिए मैं मांफी चाहती हूँ l सही राह दिखने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद l सादर प्रणाम ..
आदरणीया, आपकी इतनी भावमय रचना का यह कैसा प्रस्तुतीकरण है ? न पाराग्राफ, न भाव पंक्तियों में अन्तर ? किसी रचना को प्रस्तुत करना भी एक कला है जो कि रचना का भाग न होता हुआ भी महती भूमिका निभाता है.
विश्वास है, आप मेरे कहे का अन्वर्थ समझेंगीं.
सादर शुभकामनाएँ.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online