ग़ज़ल श्री गिरिराज भंडारी जी की नज्र ...
गुज़ारिश थी, कि तुम ठोकर न खाना अब
चलो दिल ने, कहा इतना तो माना अब
न काम आया है उनका मुस्कुराना अब
यकीनन चाल तो थी कातिलाना .... अब ?
ये दिल तो उन पे अब फिसला के तब फिसला
ये तय जानो, नहीं इसका ठिकाना अब
जो दानिशवर थे सब नादान ठहरे हैं
ये किसका दर है, तुमको क्या बताना अब
ये मौसम खूबसूरत था ये माना पर
वो आये तो हुआ है शायराना अब …
Added by वीनस केसरी on December 24, 2014 at 5:00am — 18 Comments
एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले ....
पत्थरों में खौफ़ का मंज़र भरे बैठे हैं हम |
आईना हैं, खुद में अब पत्थर भरे बैठे हैं हम |
हम अकेले ही सफ़र में चल पड़ें तो फ़िक्र क्या,
अपनी नज़रों में कई लश्कर भेरे बैठे हैं हम |
जौहरी होने की ख़ुशफ़हमी का ये अंजाम है,
अपनी मुट्ठी में फ़कत पत्थर भरे बैठे हैं हम |
लाडला तो चाहता है जेब में टॉफी मिले,
अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम…
Added by वीनस केसरी on March 24, 2014 at 12:00am — 15 Comments
छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्या
इल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या
ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या
कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या
है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या
इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या
मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है
काट ली जायेगी ज़बान भी क्या
धूप से लुट चुके मुसाफ़िर को
लूट लेंगे ये सायबान भी क्या
इस क़दर जीतने की बेचैनी
दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या
अब के दावा जो है मुहब्बत का
झूठ ठहरेगा ये…
Added by वीनस केसरी on January 20, 2014 at 12:30am — 26 Comments
अंजुमन प्रकाशन की नई पेशकश "ग़ज़ल के फ़लक पर - १"
(२०० युवा शाइरों का साझा ग़ज़ल संकलन)
पुस्तक परिचय
पुस्तक – ग़ज़ल के फ़लक पर - १
संपादक – राणा प्रताप सिंह
२०० शाइरों की ३-३ ग़ज़लें…
Added by वीनस केसरी on November 9, 2013 at 12:00am — 22 Comments
दोस्तो,
अंजुमन प्रकाशन द्वारा 27 अक्टूबर 2013 को लखनऊ के पुस्तक लोकार्पण समारोह में की गयी घोषणा के अनुसार अंजुमन ग़ज़ल नवलेखन पुरस्कार-2014 के नियम एवं शर्त उपलब्ध हैं | युवा शाइरों से निवेदन है कि इस पुरस्कार योजना में शामिल हो कर इसे सफल बनाएँ व इसका लाभ उठायें |…
Added by वीनस केसरी on November 3, 2013 at 7:30pm — 27 Comments
क्यों बे साले तेरी ये मजाल ... दो टके का मजदूर हो के मुझसे ज़बान लड़ाता है !
साहेब, गरियाते काहे हैं, मजदूर तो आपौ हैं
क्या बकता है हरामखोsss
माई बाप ... पिछले हफ्ता एक मई का आपै तो कहे रहेन ,,, "हम सब मजदूर हैं"
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by वीनस केसरी on October 13, 2013 at 12:00am — 25 Comments
आदरणीय चन्द्र शेखर पाण्डेय जी की ग़ज़ल से प्रेरित एक फिलबदी ग़ज़ल ....
२२ २२ २२ २२ २२ २
ये कैसी पहचान बनाए बैठे हैं
गूंगे को सुल्तान बनाए बैठे हैं
मैडम बोलीं आज बनाएँगे सब घर
बच्चे हिन्दुस्तान बनाए बैठे हैं
आईनों पर क्या गुजरी, क्यों सब के सब,
पत्थर को भगवान बनाए बैठे हैं
धूप का चर्चा फिर संसद में गूंजा है
हम सब रौशनदान बनाए बैठे हैं
जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत
हम कितना सामान…
Added by वीनस केसरी on September 18, 2013 at 3:00am — 24 Comments
दोस्तों, पिछले डेढ़ महीने, मंच से नादारद था ... एक ताज़ा ग़ज़ल के साथ पुनः हाज़िरी दर्ज करता हूँ ....
प्यास के मारों के संग ऐसा कोई धोका न हो
आपकी आँखों के जो दर्या था वो सहरा न हो
उनकी दिलजोई की खातिर वो खिलौना हूँ जिसे
तोड़ दे कोई अगर तो कुछ उन्हें परवा न हो
आपका दिल है तो जैसा चाहिए…
ContinueAdded by वीनस केसरी on August 11, 2013 at 10:30pm — 16 Comments
बर्तन की जाली में एक लोटा और कुछ चम्मच थे | सारे चम्मच लोटा को दुनिया का सबसे अच्छा बर्तन मानते थे, उसकी जय-जयकार करते थे, लोटा हमेशा उनको चमक - दमक की दुनिया से बचने नसीहतें देता था, हमेशा उनको बताता था कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी दिखती है, चम्मचों ! परदे के पीछे का खेल देखने की कोशिश किया करो, सच्चाई वहाँ छुपी होती है, बहुत लोग तुमको ऐसी नकली दुनिया में घसीटने की कोशिश करेंगे ऐसे लोगों से दूर रहो,,, और भी जाने क्या क्या .....…
Added by वीनस केसरी on July 17, 2013 at 2:04am — 19 Comments
एक ताज़ा ग़ज़ल ...
चुप तो बैठे हैं हम मुरव्वत में
जाएगी जान क्या शराफत में
किसको मालूम था कि ये होगा
खाएँगे चोट यूँ मुहब्बत में
पीटते हैं हम अपनी छाती…
ContinueAdded by वीनस केसरी on July 3, 2013 at 9:30pm — 40 Comments
छोटी बहर पर ग़ज़ल का एक प्रयास .....
वक्त जो हम पर भारी है
अपनी भी तय्यारी है
पूरा कारोबारी है
ये अमला सरकारी है
.…
ContinueAdded by वीनस केसरी on June 20, 2013 at 11:00am — 36 Comments
दोस्तो, एक और ग़ज़ल जो होते होते मुकम्मल हुई है, आपकी खिदमत में पेश कर रहा हूँ जैसी लगे वैसे नवाजें ....
ऐ दोस्त ! खुशतरीन वो मंज़र कहाँ गए
हाथों में फूल हैं तो वो पत्थर कहाँ गए
डरता हूँ मुझसे आज के बच्चे न पूछ लें
तितली कहाँ गईं हैं, कबूतर कहाँ गए…
Added by वीनस केसरी on June 6, 2013 at 12:30am — 34 Comments
एक ताज़ा ग़ज़ल आप सभी की मुहब्बतों के हवाले ....
वो एक बार तबीअत से आजमाए मुझे
पुकारता भी रहे और नज़र न आए मुझे
मैं डर रहा हूँ कहीं वो न हार जाए मुझे
मेरी अना के मुक़ाबिल नज़र जो आए मुझे
मुझे समझने का दावा अगर है सच्चा तो …
Added by वीनस केसरी on June 4, 2013 at 1:00am — 32 Comments
सामयिक मुद्दों पर एक नवगीत ...
रो रो कर जनता बेहाल
नेता काटें ‘मोटा माल’
साम्यवाद के पक्ष में
जितने दावे थे
सब ख़ारिज हैं…
ContinueAdded by वीनस केसरी on May 10, 2013 at 3:00pm — 24 Comments
तमाम विसंगतियों के विरोध में एक ताज़ा ग़ज़ल .....
दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं
फैसले को ‘खाप’ की कुछ पगड़ियाँ आने लगीं
किसको फुर्सत है भला, वो ख़्वाब देखे चाँद का
अब सभी के ख़्वाब में जब रोटियाँ आने लगीं
आरियाँ…
Added by वीनस केसरी on May 6, 2013 at 9:30pm — 52 Comments
परेशां है समंदर तिश्नगी से
मिलेगा क्या मगर इसको नदी से
अमीरे शहर उसका ख़ाब देखे
कमाया है जो हमने मुफलिसी से
…
ContinueAdded by वीनस केसरी on April 25, 2013 at 10:00pm — 12 Comments
मुलाकातें हमारी, तिश्नगी से
किसी दिन मर न जाएँ हम खुशी से
महब्बत यूँ मुझे है बतकही से
निभाए जा रहा हूँ खामुशी से
उन्हें कुछ काम शायद आ पड़ा है
तभी मिलते हैं मुझसे खुशदिली से
उजाला बांटने वालों के सदके
हमारी निभ रही है तीरगी से
ये कैसी बेखुदी है जिसमे मुझको
मिलाया जा रहा हैं अब मुझी से
उतारो भी मसीहाई का चोला
हँसा बोला…
Added by वीनस केसरी on April 19, 2013 at 12:14am — 16 Comments
जीतने के सौ तरीके खोजने वाले,
ग्लूकान-डी के सहारे
सूरज से लड़ने वाले हम इंसान
उजले सच को भी बर्दाशत नहीं कर पाते
प्रकृति पर विजय की लालसा लिए,
हम इंसान
पर्वत विजय का जश्न मनाते हैं,
इंगलिश चैनल को तैर कर पार करते हैं,
भू-गर्भ की गहराइयों को 'मीटर' में नापते हैं,
'मीटर' के ऊपर के सारे पैमाने जाने कहाँ चले जाते हैं उस समय !!!
चाहते हैं,
चाँद पर खेती करें,
मंगल पर पानी मिल जाए,
नए तारों की खोज में ,
हमने…
Added by वीनस केसरी on April 12, 2013 at 12:52am — 10 Comments
सच बोलने वालो
तुमको हमेशा सूली पर लटकाया गया
मगर यह गलत कहाँ है
तुम्हारे कारण
आहत होती हैं कितनी भावनाएँ,
शून्य से शिखर तक पहुँचते-पहुँचते
कितने शीशे टूट जाते है
सच बोलने वालो
तुम अलगाव वादी हो
तुमसे बर्दाशत नहीं होती
अखंडता की भावना
तुम्हें मसीहाई सूझती है
तुम्हें अप्राकृतिक सुन्दर अट्टालिकाएँ नहीं दिखतीं
केवल भूखे लोग दीखते हैं
जोर से बोलने पर
सच भी जोरदार माना जा रहा है
तारे भी सूरज है…
ContinueAdded by वीनस केसरी on April 9, 2013 at 5:00pm — 5 Comments
नई कविता जो आज रात पुरानी हो गई
मैं चाहता था
ख़्वाब मखमली हों और उनमें परियां आएँ
सूरज की तरह किस्मत हर दिन चमकदार हो
और जब सलोना चाँद रास्ता भटक जाए,
तो तारों से राह पूछने में उसे शर्म न लगे
ये भी चाहा कि,
मैं पूरी शिद्दत से किसी को पुकारूं
और वो मुड कर मुझे देख कर मुस्कुराए
हम सुलझते सुलझते, थोडा सा फिर उलझ जाएँ
प्यार करते करते लड़ पड़ें
और…
ContinueAdded by वीनस केसरी on April 9, 2013 at 3:11am — 10 Comments
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