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अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी's Blog – December 2021 Archive (5)

नज़्म (उसकी आँखें जो बोलती होतीं)

उसकी आँखें जो बोलती होतीं

कितने अफ़्साने कह रही होतीं

यूँ ख़ला में न ताकती होतीं

सिम्त मेरी भी देखती होतीं

काश आँखें मेरी इन आँखों से 

हर घड़ी बात कर रही होतीं

उसकी आँखें जो बोलती होतीं...

देखकर मुझको मुस्कराती वो 

अपनी आँखों में भी बसाती वो 

जब कभी मुझसे रूठ जाती वो 

मुझको आँखों से ही बताती वो 

मेरे आने की राह भी तकतीं 

नज़रें बस दरपे ही टिकी होतीं

उसकी आँखें जो बोलती…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 23, 2021 at 9:47pm — 4 Comments

ग़ज़ल (ये दर्द मिरे दिल के...)

221 - 1222 - 221 - 1222

ये दर्द मिरे दिल के कब दिल से उतरते हैं 

दिल में ही किया है घर सजते हैं सँवरते हैं 

आती हैं बहारें तो खिलते हैं उमीदों से 

गुल-बर्ग मगर फिर ये मोती से बिखरते हैं 

जब टूटे हुए दिल पर तुम ज़र्ब लगाते हो

पूछो न मेरे क्या क्या जज़्बात उभरते हैं 

पैवस्त ज़माने से थे जो मेरे सीने में 

अब दर्द वही फिर से रह-रह के उभरते हैं 

देखे हैं मुक़द्दर तो बिगड़े हुए बनते…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 21, 2021 at 10:13pm — 10 Comments

(ग़ज़ल) इन्साफ़ बेचते हैं फ़ैज़ान बेचते हैं

221 - 2122 - 221 - 2122

इन्साफ़ बेचते हैं फ़ैज़ान बेचते हैं 

हाकिम हैं कितने ही जो ईमान बेचते हैं 

अज़मत वक़ार-ओ-हशमत पहचान बेचते हैं 

क्या-क्या ये बे-हया बे-ईमान बेचते हैं  

मअ'सूम को सज़ा दें मुजरिम को बख़्श दें जो 

आदिल कहाँ के हैं वो इरफ़ान बेचते हैं 

घटती ही जा रही है तौक़ीर अदलिया की 

जबसे वहाँ के 'लाला' 'सामान' बेचते हैं 

उनके दिलों में कितनी अज़मत ख़ुदा की होगी 

पत्थर तराश कर…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 16, 2021 at 10:39am — 8 Comments

ग़ज़ल (जो भुला चुके हैं मुझको मेरी ज़िन्दगी बदल के)

1121 -  2122 - 1121 -  2122 

जो भुला चुके हैं मुझको मेरी ज़िन्दगी बदल के 

वो रगों में दौड़ते हैं ज़र-ए-सुर्ख़ से पिघल के 

जिन्हें अपने सख़्त दिल पर बड़ा नाज़ था अभी तक

सुनी दास्ताँ हमारी तो उन्हीं के अश्क छलके

तेरी बेरुख़ी से निकले मेरी जान, जान मेरी 

मुझे देखता है जब तू यूँ नज़र बदल-बदल के

जो नज़र से बच निकलते तेरी ज़ुल्फ़ें थाम लेतीं 

चले कैसे जाते फिर हम तेरी क़ैद से निकल के 

न मिटाओ…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 11, 2021 at 11:59am — 16 Comments

(ग़ज़ल )...कहाँ मेरी ज़रूरत है

1222 - 1222 - 1222 - 1222

फ़क़त रिश्ते जताने को यहाँ मेरी ज़रूरत है 

अज़ीज़ों को सिवा इसके कहाँ मेरी ज़रूरत है 

मुझे ग़म देने वाले आज मेरी राह देखेंगे 

मुझे मालूम है उन को जहाँ मेरी ज़रूरत है 

मेरे अपने मेरे बनकर दग़ा देते रहे मुझको 

सभी को ग़ैर से रग़्बत कहाँ मेरी ज़रूरत है 

लिये उम्मीद बैठे हैं वो मेरी सादा-लौही पर 

चला आता हूँ मैं अक्सर जहाँ मेरी ज़रूरत है

कभी इतराते हैं ख़ुद पर कभी सहमे…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 10, 2021 at 6:54pm — 18 Comments

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