2212 - 1222 - 212 - 122
इक है ज़मीं हमारी इक आसमाँ हमारा
इक है ये इक रहेगा भारत हमारा प्यारा
हिन्दू हों या कि मुस्लिम सारे हैं भाई-भाई
होंगे न अब कभी भी तक़्सीम हम दुबारा
यौम-ए-जम्हूरियत पर ख़ुशियाँ मना रहे हैं
हासिल शरफ़ जो है ये, ख़ूँ भी बहा हमारा
अपने शहीदों को तुम हरगिज़ न भूल जाना
यादों को दिल में उनकी रखना जवाँ ख़ुदारा
फ़िरक़ा-परस्ती दहशत-गर्दी नहीं चलेगी
दुश्मन हैं अम्न के जो होंगे न वो गवारा
ज़रख़ेज़ ये ज़मीं है मिट्टी में इसकी सोना
हिन्दोस्ताँ मेरा है आँखों का मेरी तारा
जुर्रत है किसमें बढ़-के छू दे हमारी सरहद
हर चश्म शम्स है और हर ज़र्रा है सितारा
''मौलिक व अप्रकाशित''
(गणतंत्र दिवस 26.01.2021 पर विशेष)
Comment
जनाब आज़ी 'तमाम' साहिब आदाब, मुहतरम ग़ज़ल पर आपकी आमद सुख़न नवाज़ी और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया। सादर।
बेहतरीन ग़ज़ल है बधाई हो आ० अमीर जी आदाब
जनाब मुख्य संपादक महोदय आदाब, मुहतरम ग़ज़ल को फीचर ब्लॉग में शामिल करने के लिए ख़ाक़सार आपका मशकूर ओ ममनून है। सादर।
जनाब कृष मिश्रा, 'जान' गोरखपुरी साहिब आदाब, मुहतरम आपने अपना क़ीमती वक़्त निकाल कर इस ख़ाक़सार की ग़ज़ल को दिया और हौसला अफ़ज़ाई की इसके लिये मैं आपका मशकूर ओ ममनून हूँ। आपको मेरा लेखन अच्छा लगा और आप न सिर्फ ग़ज़ल तक आए बल्कि अपनी पसन्दगी का इज़हार भी किया, ये आपकी ज़र्रा नवाज़ी है। सादर।
अद्भुत, जिंदाबाद जिंदाबाद!! लाज़वाब कौमी तराने की ग़ज़ल,
बार बार लगातार गुनगुनाया, गजब की रवानी लिए हुए है पूरी ग़ज़ल।
इस बेहतरीन, मुकम्मल ग़ज़ल के लिए हृदयगत से बधाई आदरणीय।
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