उसके दरबार में ……………
पूजा कहीं दिल से की जाती है
तो कहीं भय से की जाती है
कभी मन्नत के लिए की जाती है
तो कभी जन्नत के लिए की जाती है
कारण चाहे कुछ भी हो
ये निश्चित है कि
पूजा तो बस स्वयं के लिए की जाती है
कुछ पुष्प और अगरबती के बदले
हम प्रभु से जहां के सुख मांगते हैं
अपने स्वार्थ के लिए
उसकी चौखट पे अपना सर झुकाते हैं
अपनी इच्छाओं पर
अपना अधिकार जताते हैं
इधर उधर देखकर
प्रभु के परम भक्त होने पर इतराते…
Added by Sushil Sarna on December 19, 2016 at 6:31pm — 12 Comments
ज़ंग .....
गलत है
मिथ्या है
झूठ है
कि
उदासी
अकेलेपन की दासी है
अकेलेपन के किनारों पर
नमी का अहसास होता है
क्या अकेलापन
अंतस का
दर्द से
परिचय कराने का पर्याय है ?
जब कुछ नहीं होता
तो अकेलापन होता है
अकेलेपन में
स्व से परिचय होता है
अपने वज़ूद से
पहचान होती है
ज़िदंगी करीब आती है
अपना पराया समझाती है
अकेलेपन में
पीछे छूटे लम्हात
साथ निभाते हैं…
Added by Sushil Sarna on December 17, 2016 at 4:45pm — 6 Comments
इंतज़ार ....
भोर की पहली किरण
सर्द हवा
आधी जागी
आधी सोयी
तू गर्म शाल में लिपटी
बालकनी के कोने में
हाथों में
कॉफी का कप लिए
यक़ीनन
मेरे आने का
इंतज़ार करती होगी
कितना
रुमानियत भरा होगा
वो मंज़र
तेरी आँखों में
मेरे आने के
इंतज़ार का
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 16, 2016 at 1:01pm — 8 Comments
बड़ी अच्छी लगती है ...
हिज़्र में
तन्हाई
बड़ी अच्छी लगती है
यादों की
परछाई
बड़ी अच्छी लगती है
कभी कभी
रुसवाई भी
बड़ी अच्छी लगती है
आँखों की
गहराई
बड़ी अच्छी लगती है
साँसों की
गरमाई
बड़ी अच्छी लगती है
हुस्न की
अंगड़ाई
बड़ी अच्छी लगती है
दिल में
दिल की
समाई
बड़ी अच्छी लगती है
मगर
हक़ीक़ी ज़िन्दगी…
ContinueAdded by Sushil Sarna on December 15, 2016 at 9:19pm — 6 Comments
इक लफ्ज़ मुहब्बत का ....
लम्हों की गर्द में लिपटा
इक साया
ओस में ग़ुम होती
भीगी पगडंडी के
अनजाने मोड़ पर
खामोशियों के लबादे ओढ़े
किसी बिछुड़े साये के
इंतज़ार में
इक बुत बन गया
धुल न जाएँ
सर्दी की बारिश में
कहीं लंबी रातों के
पलकों के लिहाफ़ में
अधूरे से ख़्वाब
वो धीरे धीरे
कोहरे की लहद में
खो गया
इक लफ्ज़
मुहब्बत का
खामोश ही सो गया
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 14, 2016 at 9:03pm — 8 Comments
रेशम से रिश्ते ....
न हवा
न आंधी
धूप का कहर
तमतमाई वसुधा
शज़र के शीर्ष से
गिरा
बे-दम सा
एक
ज़र्द पत्ता
इतना भी
क्या अफ़सोस
बोली
नयी कोपल
दर्द पे
शज़र के
एक हल्की सी ज़ुब्मिश
शज़र बोला
बाद गुज़रने के
इतनी लंबी उम्र
अब
रिश्तों की
समझ आयी है
तू
अभी नयी है
तू
मुझे भी कहाँ जान पायी है
छोड़ के देख
मेरी उंगली को
तुझे दर्द की…
Added by Sushil Sarna on December 13, 2016 at 9:06pm — 4 Comments
यादों का सफर ...
मैं
चलता रहा
हर उस रास्ते पर
जहां पर आज
खिजाओं के डेरे थे
मैं
चलता रहा
हर उस रास्ते पर
जहां आज
उजालों में अंधेरे थे
मैं
चलता रहा
हर उस रास्ते पर
जहां आज
सिर्फ
यादों के घेरे थे
मैं
रुक गया
चलते चलते
जहां मंज़िल ने
मुँह मोड़ा था
मैं
हंस पड़ा
उस खार की अदा पर
जिसके दर्द में
यादों के डेरे थे
मैं…
Added by Sushil Sarna on December 12, 2016 at 9:00pm — 6 Comments
निशानों में .....
आंखें बन्द
मुट्ठियों भिची हुई
अंतस में शोर
अपने रुद्र रूप में
तलाश
बीते लम्हों की
खो गए जो
अपने साथ लिए
जन्मों के वादे
सागर किनारे
गीली रेत पे
छूटे
गीले पाँव के
निशानों में
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on December 12, 2016 at 2:29pm — 8 Comments
अधूरी तिश्नगी ...
कैसे भूल सकती हूँ
वो रात
वो बात
जो एक चिंगारी से
शुरू हुई थी
वो चिंगारी
मेरी रगों में
धीरे धीरे
आग बनकर फैलती गयी
और मैं
चुपचाप उस आग में
जलती रही
मैं
खामोशियों के बियाबाँ में
गूंगी बनी
अपने जज़्बातों से
तन्हा सी
गुफ़्तगू करती रही
अपने खून में
लगी आग को बुझाना
मुझे कहां आता था
निहारती रही
आसमां की तरफ़
कि शायद कोई अब्र…
Added by Sushil Sarna on December 8, 2016 at 6:11pm — 12 Comments
क्षण भर पीर को सोने दो .....
क्षण भर पीर को सोने दो
चाह को मुखरित होने दो
जाने चमके फिर कब चाँद
अधर को अधर का होने दो
क्षण भर पीर को सोने दो .....
आलौकिक वो मुख आकर्षण
मौन भावों का प्रणय समर्पण
अंतस्तल को तृप्त तृषा का
वो छुअन अभिनंदन होने दो
क्षण भर पीर को सोने दो .....
बीत न जाए शीत विभावरी
विभावरी तो विभा से हारी
अंग अंग को प्रीत गंध का
अनुपम उपवन होने दो
क्षण भर पीर…
ContinueAdded by Sushil Sarna on November 29, 2016 at 8:34pm — 6 Comments
घूंघट की ओट में .....
खो गयी
एक गुड़िया
घूंघट की ओट में
बन गयी
वो एक दुल्हन
घूंघट की ओट में
ख़्वाबों का
शृंगार हुआ
घूंघट की ओट में
थम थम के
छुअन बढ़ी
घूंघट की ओट में
सब कुछ
मिला उसे
घूंघट की ओट में
बस
मिल न पाया
उसे एक दिल
घूंघट की ओट में
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on November 24, 2016 at 8:31pm — 10 Comments
लाडो ....
माँ
मैं तो
लाडो ही रहना चाहती थी
तुम्हारी लाडो
नाचती
कूदती
प्यारी सी लाडो
समय ने कब
बचपन की दीवारों में सेंध मारी
पता ही न चला
ज़माने की निगाहों ने
कब ज़िस्म को
छीलना शुरू किया
ख़बर ही न हुई
मैं
तिल तिल करती
मेहंदी की दहलीज़ तक
आ पहुँची
किसी के हाथों में
तेरी लाडो
कैद सी हो गयी
कोई रस्म
तेरी लाडो की
तक़दीर बदल…
Added by Sushil Sarna on November 22, 2016 at 4:34pm — 10 Comments
व्यथित मन .....
कहते हैं
अंतर्मन की व्यथा को
कह देने से
हल्का हो जाता है
मन
कहा
आईने से
तो बिम्ब देख
और भी
व्यथित हो गया
मन
कहा
एकांत से
तो अंधेरों में
अट्टहास करती
असंख्य ध्वनियों ने
चीर डाला
व्यथित
मन
कहा
स्वप्न से
तो स्मृतियों के
सागर पर
मिल गया
मुझ जैसा ही
एक और
तन्हा
व्यथित
मन
देखा उसे
तो…
Added by Sushil Sarna on November 21, 2016 at 9:02pm — 10 Comments
तृषित नज़र .....
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
नयन घटों की हलचल में
मधु पल सारे गए बिखर
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
देह दिगम्बर रैन निहारे
बिंब चुंबन के देह सँवारे
प्रेम बंध सब चूर हो गए
स्वप्न वात में गए बिखर
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
निर्झर बन बही विरह वेदना
अमृत पल कुछ रहे शेष न
श्वास श्वास से…
Added by Sushil Sarna on November 17, 2016 at 5:33pm — 4 Comments
इस घर से .... (200 वीं प्रस्तुति )
कितना
इठलाती थी
शोर मचाती थी
मोहल्ले की
नींद उड़ाती थी
आज
उदास है
स्पर्श को
बेताब है
आहटें
शून्य हैं
अपनी शून्यता के साथ
एक विधवा से
अहसासों को समेटे
झूल रही है
दरवाज़े पर
अकेली
सांकल
शायद
इस घर से
इस घर को
घर बनाने वाला
चला गया है
इक
बज़ुर्ग
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on November 15, 2016 at 1:39pm — 14 Comments
बेपर्दा ....
तमाम शब्
अधूरी सी
इक नींद
ज़हन की
अंगड़ाई में
छुपाये रहती हूँ
इक *मौहूम सी
मुस्कान
लबों पे
थिरकती रहती है
सुर्ख रूख़सारों पे
ज़िंदा है
वो तारीकी की ओट में लिया
इक गर्म अहसास का
नर्म बोसा
डर लगता है
सहर की शरर
मेरी हया को
बेपर्दा न कर दे
जिसे छुपाया
अपनी साँसों से भी
कहीं ज़माने को
वो
ख़बर न कर…
Added by Sushil Sarna on November 14, 2016 at 3:30pm — 6 Comments
अब ,क्या बोलूं मैं ...
अब
क्या बोलूं मैं
जब
मेरे स्वप्निल शब्दों ने
यथार्थ का
आकार लेना शुरू किया
तो भोर की
एक रशिम ने
मेरे अंतरंग पलों पर
प्रहार कर दिया
मैं अनमनी सी
सुधियों के शहर से
लौट आयी
यथार्थ की
कंकरीली ज़मीन पर
मेरी उम्मीदों की मीनारें
ध्वस्त हो कर
मेरी पलकों की मुट्ठी से
निःशब्द
गिरती रही
तिल-तिल जुड़ने की आस में
मैं रेशा-रेशा
उधड़ती…
Added by Sushil Sarna on November 9, 2016 at 8:27pm — 6 Comments
तुम्हारी ज़िन्दगी में ....
चलो
तुम ही बताओ
आखिर
कहाँ हूँ
मैं
तुम्हारी ज़िन्दगी में
नसीमे सहर में
स्याह रात के सितारों में
बरसात की बूंदों में
झील के माहताब में
या
तुम्हारी बन्द पलकों के
ख्वाब में
आखिर
कहाँ हूँ
मैं
तुम्हारी ज़िन्दगी में
तेज़ पानी में
बहती कागज़ की
कश्तियों में
साहिलों के बाहुपाश में लिपटी
सागर की लहरों में …
Added by Sushil Sarna on November 6, 2016 at 3:30pm — 4 Comments
बस , यूँ ही ....
मुस्कुराई थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
गुनगुनाई थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
शरमाई थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
बहार बन के
आई थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
मुझ में समाई थी
उस रात
क्या तुम
बस
यूँ ही
मेरे लिए
रोयी थी
उस रात
क्या तुम
बस …
Added by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 4:30pm — 6 Comments
अंत के गर्भ में .....
मैं
व्यस्त रही
अपने बिम्बों में
तुम्हारे बिम्ब को
तलाशते हुए
तुम
व्यस्त रहे
अपने
स्वप्न बिम्बों को
तराशने में
हम
व्यस्त रहे
इक दूसरे में
इक दुसरे को
ढूंढने में
पर
वक्त ने
वक्त न दिया
हम
ढूंढते ही रह गए
आरम्भ को
अंत के गर्भ में
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on November 2, 2016 at 10:11pm — 2 Comments
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