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Sushil Sarna's Blog (861)

स्वप्निल यथार्थ

स्वप्निल यथार्थ....

जब प्रतीक्षा की राहों में

सांझ उतरे



पलकों के गाँव में

कोई स्वप्न

दस्तक दे



कोई अजनबी गंध

हृदय कंदरा को

सुवासित कर जाए



कोई अंतस में

मेघ सा बरस जाए



उस वक़्त

ऐ सांझ

तुम ठहर जाना

मेरी प्रतीक्षा चुनर के

अवगुंठन के

हर भ्रम को

हर जाना

मेरे स्वप्न को

यथार्थ कर जाना

मेरे स्वप्निल यथार्थ को

अमर कर जाना

सुशील सरना

मौलिक एवं…

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Added by Sushil Sarna on March 14, 2018 at 7:45pm — 13 Comments

माँ शब्द पर २ क्षणिकाएं :

माँ शब्द पर २ क्षणिकाएं :

1.

मैं

जमीं थी

आसमाँ हो गयी

एक पल में

एक

जहाँ हो गयी

अंकुरित हुआ

एक शब्द

और मैं

माँ हो गयी

...........................

२.

ज़िंदा रहते हैं

सदियों

फिर भी

लम्हे

बेज़ुबाँ होते हैं

छोड़ देती हैं

साथ

साँसें

जब ज़िस्म

फ़ना होते हैं

ज़िंदगी

को जीत लेते हैं

मौत से

जो शब्द

वो

माँ होते…

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Added by Sushil Sarna on March 11, 2018 at 9:30pm — 17 Comments

तुम्हारी कसम....

तुम्हारी कसम.... 

हिज़्र की रातों में

तन्हा बरसातों में

खामोश बातों में

नशीली मुलाकातों में

तुम्हारी कसम

सिर्फ़

तुम ही तुम हो

चांदनी के शबाब में

पलकों के ख्वाब में

प्यालों की शराब में

अर्श के माहताब में

तुम्हारी कसम

सिर्फ़

तुम ही तुम हो

ख्यालों की बाहों में

बेकरार निगाहों में

गुलों की अदाओं में

आफ़ताबी शुआओं में

तुम्हारी कसम

सिर्फ़

तुम ही तुम…

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Added by Sushil Sarna on February 16, 2018 at 2:24pm — 14 Comments

अस्तित्व ....

अस्तित्व ....

एक अस्तित्व
शून्य हुआ
एक शून्य
अस्तित्व हुआ
धूप-छाँव के बंधन का
हर एक सूरज
अस्त हुआ
ज़िंदगी ज़मीन की
ज़मीन के पार
चलती रही
और
दूर कहीं
कोई चिता
धू-धू कर
जलती रही

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on February 11, 2018 at 3:15pm — 7 Comments

1. खोये स्वप्न .../2. मन्नत   ....

1. खोये स्वप्न ...

तमाम रात

मेरे साथ था

एक स्वप्न

भोर होते ही

वो स्वप्न

स्वप्न सा हो गया

मैं

देर तक

पलकों की दहलीज़

बुहारती रही

खोये स्वप्न को

ढूंढने के लिए

...........................

2. मन्नत   ....

देर तक

रुका रहा

मेरे घर की छत पर

वो आसमान से टूटा

मन्नत का तारा

मेरे ज़ह्न में

काँपता रहा

देर तक उसका ख़्याल

मेरी आँखों के कटोरों में

कोई अपने अक्स की…

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Added by Sushil Sarna on February 4, 2018 at 3:52pm — 13 Comments

अमर हो गए ...

अमर हो गए ...

मेरी हिना

बहुत लजाई थी

जब तुम्हारे स्पर्श

मेरे हाथों से

टकराये थे

मेरा काजल

बहुत शरमाया था

जब

तुम्हारी शरीर दृष्टि ने

मेरी पलक

थपथपाई थी

मेरे अधर

बहुत थरथराये थे

जब तुम्हारी

स्नेह वृष्टि ने

मेरे अधर तलों को

अपने स्नेहिल स्पर्श से

स्निग्ध कर दिया था

मैं शून्य हो गयी

जब

प्रेम के दावानल में

मेरा अस्तित्व

तुम्हारे अस्तित्व के…

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Added by Sushil Sarna on February 3, 2018 at 4:35pm — 6 Comments

आहट की प्रतीक्षा में ...

आहट की प्रतीक्षा में ...

जाने

कितनी घटाओं को

अपने अंतस में समेटे

अँधेरे में

चुपचाप

बैठी रही

कौन था वो

जो कुछ देर पहले

देर तक

मेरे मन की

गहन कंदराओं में

अपने स्वप्निल स्पर्शों से

मेरी भाव वीचियों को

सुवासित करता रहा

और

मैं

ऑंखें बंद करने का

उपक्रम करती हुई

उसके स्पर्शों के आग़ोश में

मौन अन्धकार का

आवरण ओढ़े

चुपचाप

बैठी रही

आहटें

रूठ गयीं…

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Added by Sushil Sarna on February 1, 2018 at 3:23pm — 13 Comments

मैं ....

मैं ....

मैं
कल भी
ज़िंदा था
आज भी
ज़िंदा हूँ
और
कल भी
ज़िदा रहूंगा

फ़र्क
सिर्फ़ इतना है
कि

मैं
कल गर्भ था
आज
देह हूँ
कल
अदेह हो जाऊंगा

गर्भ की यात्रा से शुरू
मैं
मैं की केंचुली छोड़

अनंत के गर्भ में
अमर
अदेह हो जाऊंगा

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 26, 2018 at 12:00pm — 12 Comments

चाँद से पूछें...

चाँद से पूछें.....

आखिर

ख़्वाब टूटने का सबब

क्या है

चलो

चाँद से पूछें

करते हैं

जो दिल की मुरादें पूरी

उन तारों का पता

चलो

चाँद से पूछें

मुहब्बत में

अश्कों का निज़ाम

किसने बनाया

चलो

चाँद से पूछें

धड़कनों के पैग़ाम

क्यूँ हुए रुसवा

चलो

चाँद से पूछें

क्यूँ पूनम का अंजाम

बना अमावस

चलो

चाँद से पूछें

पेशानी पे मुहब्बत की…

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Added by Sushil Sarna on January 18, 2018 at 1:18pm — 4 Comments

3. क्षणिकाएं :.....

3. क्षणिकाएं :.....

1.

मैं
कभी मरता नहीं
जो मरता है
वो
मैं नहीं
... ... ... ... ... ... ...

2.

ज़िस्म बिना
छाया नहीं
और ]
छाया का कोई
जिस्म नहीं
... ... ... ... ... ... ... ...

3.
क्षितिज
तो आभास है
आभास का
कोई छोर नहीं
छोर
तो यथार्थ है
यथार्थ का कोई
क्षितिज नहीं

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 16, 2018 at 5:09pm — 10 Comments

ख़्वाब के साथ ...

ख़्वाब के साथ ...

न जाने कब
मैं किसी
अजनबी गंध में
समाहित हो गयी

न जाने कब
कोई अजनबी
इक गंध सा
मुझ में समाहित हो गया

न जाने
कितनी कबाओं को उतार
मैं + तू = हम
के पैरहन में
गुम हो गए


और गुम हो गए
सारे
अजनबी मोड़
हकीकत की चुभन को भूल
ख़्वाबों की धुंध में
कभी अलग न होने के
ख़्वाब के साथ

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 15, 2018 at 6:00pm — 6 Comments

स्वप्न धुंध ...

स्वप्न धुंध... 

असहनीय शीत के बावज़ूद

मैं देर तक

उसे महसूस करती रही

अपने हाथों में बंद

गीले रुमाल को भींचे हुए

धुंध को चीरती हुई

बेरहम ट्रेन आई

मेरे स्वप्न को

साथ लिए

धुंध में खो गई

मैं दूर तक

ट्रेन के साथ साथ

उसका हाथ पकड़े

दौड़ती रही,दौड़ती रही

आंखें

विछोह का भार न सकी

सागर बन छलक पड़ी

बॉय-बॉय करते उसके हाथ से

उसका रुमाल गिर गया

मैं दौड़ी

रुमाल उठाया

चौंकी

उसका…

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Added by Sushil Sarna on January 8, 2018 at 6:34pm — 10 Comments

कुछ कहते-कहते ...

कुछ कहते-कहते ...

विरह निशा के श्यामल कपोलों को चूम

निशब्द प्रीत

अपनी निष्पंद साँसों के साथ

कुछ कहते-कहते

सो गयी

व्यथित हृदय

कब तक बहलता

पल पल

टूटती यादों के खिलौनों से

स्मृति गंध

आहटों के राग की प्रतीक्षा में

नैनों में

वेदना की विपुल जलराशि भरे

पवन से

कुछ कहते-कहते

सो गयी

खामोशियाँ

बोलती रहीं

शृंगार सिसकता रहा

थके लोचन

विफलता के प्रहार

सह न सके…

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Added by Sushil Sarna on January 5, 2018 at 5:38pm — 9 Comments

सांस भर की ज़िंदगी ...

सांस भर की ज़िंदगी ...

वक़्त के साथ

हर शै अपना रूप

बदलती है

धूप ढलती है तो

छाया भी बदलती है

वक़्त के साथ

मोहब्बत की चांदी

केश वन में

चमकने लगी

उम्र की पगडंडियां

झुर्रियों में झलकने लगीं

वक़्त के साथ

यौवन का दम्भ

लाठी का मोहताज़ हो गया

दर्पण

आँख से नाराज़ हो गया

अनुराग

दर्द का राग हो गया

हदें

निगाहों से रूठ गयी

नफ़स

छटपटाई बहुत

आखिर

थककर टूट गयी…

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Added by Sushil Sarna on December 27, 2017 at 6:37pm — 18 Comments

पीठ के नीचे ..

पीठ के नीचे ..

बेघरों के

घर भी हुआ करते हैं

वहां सोते हैं

जहां शज़र हुआ करते हैं

पीठ के नीचे

अक्सर

पत्थर हुआ करते हैं

ज़िंदगी के रेंगते सफ़र हुआ करते हैं

बेघरों के भी

घर हुआ करते हैं

भोर

मजदूरी का पैग़ाम लाती हैं

मिल जाती है मजदूरी

तो पेट आराम पाता है

वरना रोज की तरह

एक व्रत और हो जाता है

बहला फुसला के

पेट को मनाते हैं

तारों को गिनते हैं

ख़्वाबों में सो जाते हैं

मज़दूर हैं…

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Added by Sushil Sarna on December 25, 2017 at 7:00pm — 6 Comments

इक शाम दे दो ..

इक शाम दे दो ...

तन्हाई के आलम में

न जाने कौन

मेरे अफ़सुर्दा से लम्हों को

अपनी यादों की आंच से

रोशन कर जाता है

लम्हों के कारवाँ

तेरी यादों की तपिश से

लावा बन

आँखों से पिघलने लगते हैं

किसी के लम्स

मेरी रूह को

झिंझोड़ देते हैं

अँधेरे

जुगनुओं के लिए

रस्ते छोड़ देते हैं

तुम अरसे से

मेरे ज़ह्न में पोशीदा

इक ख़्वाब हो

मेरे सुलगते जज़्बात का

जवाब हो

अब सिवा तेरी आहटों के…

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Added by Sushil Sarna on December 25, 2017 at 6:30pm — 6 Comments

कड़वाहट ....

कड़वाहट ....

जाने कैसे

मैंने जीवन की

सारी कड़वाहट पी ली

धूप की

तपती नदी पी ली

मुस्कुराहटों के पैबन्दों से झांकती

जिस्मों की नंगी सच्चाई पी ली

उल्फ़त की ढलानों पर

नमक के दरिया की

हर बूँद पी ली

रात की सिसकन पी ली

चाँद की उलझन पी ली

ख़्वाबों की कतरन पी ली

आगोश के लम्हों की

हर फिसलन पी ली

जानते हो

क्यूँ

शा.... य... द

मैं

तू.... म्हा ... रे

इ.... .श्......क

की…

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Added by Sushil Sarna on December 17, 2017 at 8:30pm — 6 Comments

आग ..

आग ..

सहमी सहमी सांसें

बेआवाज़ आहटें

खामोशियों के लिबास में लिपटे

कुछ अनकहे शब्द

पल पल सिमटती ज़िदंगी

जवाबों को तरसते

बेहिसाब सवाल

शायद

यही सब था

इस हयाते सफ़र का अंजाम

लम्हे ज़िदंगी से अदावत कर बैठे

ख़्वाब

आग के साथ सुलगने लगे

अभी तो जीने की आग भी

न बुझ पायी थी

कि मौत की फसल

लहलहाने लगी

इक हुजूम था

मेरे शेष को

अवशेष में बदलने के लिए

नाज़ था जिस वज़ूद पर

वो ख़ाक हो जाएगा

आग के…

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Added by Sushil Sarna on December 15, 2017 at 4:35pm — 8 Comments

जीने के लिए ...

जीने के लिए ...

जाने

कितनी दुश्वारियों को झेलती

ज़िंदगी

रेंगती हसरतों के साथ

खुद भी

रेंगने लगती है

हर कदम

जीने के लिए

ज़ह्र पीती है

हर लम्हा

चिथड़े -चिथड़े होते

आरज़ूओं के

पैबंद सीती है

जाने कब

वक़्त

ज़िंदगी की पेशानी पर

बिना तारीख़ के अंत की

एक तख़्ती

लगा जाता है

उस तख़्ती के साथ

ज़िंदगी रोज

मरने के लिए

जीती है

और

जीने के लिए

मरती है

सुशील सरना…

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Added by Sushil Sarna on December 6, 2017 at 1:25pm — 9 Comments

अचंभित हूँ ....

अचंभित हूँ ....

अचंभित हूँ

इस गहन तिमिर में भी

तुमने श्वासों के

आरोह-अवरोह को

महसूस कर लिया

अचंभित हूँ

तुमने कैसे मेरे

अबोले तिमित स्वरों को

पहचान लिया

और चुपके से

मेरे अंतर्भावों का

अपने नयन स्वरों से

शृंगार कर दिया

अचंभित हूँ

तुम कैसे मुझसे मिलने

हृदय की गहन कंदराओं में

मेरे अस्तित्व की प्रेमानुभूतियों से

अभिसार करने आ गए

मैं तो कब से

अस्तित्वहीन हो गयी थी…

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Added by Sushil Sarna on December 6, 2017 at 1:00pm — 10 Comments

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