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Naveen Mani Tripathi's Blog – November 2018 Archive (5)

अब और न हिन्दू न मुसलमान कीजिये

221 1221 1221 212

गर हो सके तो मुल्क पे अहसान कीजिये ।।

अब और न हिन्दू न मुसलमान कीजिये ।।

भगवान को भी बांट रहे आप जात में ।

कितना  गिरे हैं सोच के अनुमान कीजिये ।।

मत  सेंकिए  ये रोटियां नफरत की आग पर ।

अम्नो सुकूँ के वास्ते फ़रमान कीजिये ।।…

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Added by Naveen Mani Tripathi on November 29, 2018 at 11:30pm — 5 Comments

मेरा क़ातिल तो मेरा रहनुमा है

1222 1222 122



खतों का चल रहा जो सिलसिला है ।

मेरी उल्फ़त की शायद इब्तिदा है ।।

यहाँ खामोशियों में शोर जिंदा ।

गमे इज़हार पर पहरा लगा है ।।

छुपा बैठे वो दिल की आग कैसे।

धुंआ घर से जहाँ शब भर उठा है ।।

नही समझा तुझे ऐ जिंदगी मैं ।

तू कोई जश्न है या हादसा है ।।

मिला है बावफा वह शख़्स मुझको ।

कहा जिसको गया था बेवफा है…

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Added by Naveen Mani Tripathi on November 27, 2018 at 10:00pm — 4 Comments

टूटा पत्ता दरख़्त का हूँ मैं

ग़ज़ल

इक ठिकाना तलाशता हूँ मैं ।

टूटा पत्ता दरख़्त का हूँ मैं ।।

कुछ तो मुझको पढा करो यारो ।

वक्त का एक फ़लसफ़ा हूँ मैं ।।

हैसियत पूछते हैं क्यूं साहब ।

बेख़ुदी में बहुत लुटा हूँ मैं ।।

इश्क़ की बात आप मत करिए ।

रफ़्ता रफ़्ता सँभल चुका हूँ मैं ।।

चाँद इक दिन उतर के आएगा ।

एक मुद्दत से जागता हूँ मैं ।।

खेलिए मुझसे पर सँभल के जरा।

इक खिलौना सा…

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Added by Naveen Mani Tripathi on November 26, 2018 at 11:33pm — 10 Comments

ग़ज़ल

1222 1222 1222 1222

हुआ अब तक नहीं है हुस्न का दीदार जाने क्यों ।

बना रक्खी है उसने बीच मे दीवार जाने क्यों ।।

मुहब्बत थी या फिर मजबूरियों में कुछ जरूरत थी ।

बुलाता ही रहा कोई मुझे सौ बार जाने क्यों ।।

यहाँ तो इश्क बिकता है यहां दौलत से है मतलब ।

समझ पाए नहीं हम भी नया बाज़ार जाने क्यों ।।

तिजारत रोज होती है किसी के जिस्म की देखो ।

कोई करने लगा है आजकल व्यापार जाने क्यों ।।

कोई दहशत है या फिर वो कलम…

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Added by Naveen Mani Tripathi on November 23, 2018 at 1:30am — 12 Comments

ग़ज़ल

11212 11212. 11212. 11212

हुई तीरगी की सियासतें उसे बारहा यूँ निहार कर ।

कोई ले गया मेरा चाँद है मेरे आसमाँ से उतार कर ।।

अभी क्या करेगा तू जान के मेरी ख्वाहिशों का ये फ़लसफा ।

जरा तिश्नगी की खबर भी कर कोई शाम एक गुज़ार कर ।।

मेरी हर वफ़ा के जवाब में है सिला मिला मुझे हिज्र का ।

ये हयात गुज़री तड़प तड़प गये दर्द तुम जो उभार कर ।।

ये शबाब है तेरे हुस्न का या नज़र का मेरे फितूर है ।

खुले मैकदे तो बुला रहे तेरे तिश्ना लब को पुकार कर…

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Added by Naveen Mani Tripathi on November 15, 2018 at 12:17pm — 6 Comments

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