प्रेम-प्रेम की रट लगी, मर्म न जाने कोय!
देह-पिपासा जब जगी, गए देह में खोय!
मीरा का भी प्रेम था, गिरधर में मन-प्राण!
राधा भी थी खो गयी, सुन मुरली की तान!!
राम चले वनवास को, सीता भी थीं साथ!…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 30, 2013 at 11:13pm — 26 Comments
थाल किरणों का सजाकर
भोर देखो आ गयी
रात भी थक-हारकर
फिर जा क्षितिज पर सो गयी
चाँद का झूमर सजा
रात की अंगनाई में
और तारे झूमते थे
नभ की अमराई में
चाँदनी के नृत्य से
मदहोशियाँ सी छा गयी
तब हवा की थपकियों से
नींद सबको आ गयी
सूर्य के फिर आगमन की
जब मिली आहट ज़रा
जगमगाया आकाश सारा
खिल उठी ये धरा
छू लिया जो सूर्य ने
कुछ यूँ दिशा शरमा गयी
सुर्ख उसके गाल…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 29, 2013 at 6:30pm — 30 Comments
जन्मा-अजन्मा के भेद से परे
एक सत्य- माँ!
तुम ही तो हो
जिसने गढ़ी
ये देह, भाव, विचार,
शब्द!
रूप-अरूप-कुरूप में
झूलती देह
गल ही जाएगी
भाव, विचार
थिर ही जायेंगे
अभिव्यक्ति को तरसते
स्वप्न-चित्र
तिरोहित हो जायेंगे
फिर भी चाहना के
उथले-छिछले जल में
डूबते-उतराते
बहक ही जाते हैं
उस राह पर
जिसके दोनों तरफ हैं…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 25, 2013 at 9:00pm — 26 Comments
मैं क्या हूँ
बहुत सोचा
पर सुलझी न गुत्थी
शब्द से पूछा तो वह बोला,
‘मैं ध्वनि हूँ अदृश्य
रूप लेता हूँ
जब उकेरा जाता है
धरातल पर’
पेड़ से पूछा तो बोला
‘मैं हूँ बीज का विस्तार’
‘और बीज क्या है?’
‘वह है मेरा छोटा अंश’
अजब रहस्य
विस्तार का अंश
अंश का विस्तार
खुलती नहीं रहस्य की पर्तें
एक सतत क्रम-
सूक्ष्म के विस्तार
विस्तार के सूक्ष्म होने…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 25, 2013 at 11:00am — 42 Comments
इक हलचल सी चौखट पर
नयनों में हैं स्वप्न भरे
उड़ता-फिरता इक तिनका
पछुआ से संघर्ष रहा
पेड़ों की शाखाओं पर
बाजों का आतंक रहा
तितली के इन पंखों ने
कई सुनहरे रंग भरे
दूर क्षितिज की पलकों पर
इक किरण कुम्हलाई सी
साँझ धरा पर उतरी है
आँचल को ढलकाई सी
गहन तिमिर की गागर में
ढेरों जुगनू आन भरे
इन शब्दों के चित्रों में
दर्द उभर ही आते हैं
जाने…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 18, 2013 at 10:30pm — 22 Comments
भाषा
भाषा अभिव्यक्ति का ऐसा साधन है जिसके द्वारा मनुष्य अपने विचारों और भावों को प्रकट करता है और दूसरों के विचार और भाव जान सकता है।
संसार में अनेक भाषाएँ हैं, जैसे- हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी, बँगला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, फ्रैंच, चीनी, जर्मन इत्यादि।
भाषा दो रूपों में प्रयुक्त होती है- मौखिक और लिखित। परस्पर…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 15, 2013 at 2:30pm — 15 Comments
हमने घर की दीवारों में
जीवन की इक आस सजायी
रत्ती-रत्ती सुबह बटोरी
टुकड़ा-टुकड़ा साँझ संजोई
इस चुभती तिमिर कौंध में
दीपों की बारात सजायी
तिनका-तिनका भाव बटोरे
टूटे-फूटे सपन संजोये
साँसों की कठिन डगर पे
आशा ही दिन-रात सजायी
भूख सहेजी, प्यास सहेजी
सोती-जगती रात सहेजी
यूँ चलते, गिरते-पड़ते
कितनी टूटी बात सजायी
तेरे हाथों के स्पर्शों ने
इन होठों…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 12, 2013 at 11:00pm — 30 Comments
एक पुरानी रचना को कुछ गेय बनाने का प्रयास किया है। देखें, कितना सफल रहा।
इन नयनों में आज प्रभू
आकर यूं तुम बस जाओ
जो कुछ भी देखूं मैं तो
एक तुम ही नजर आओ
धरती-नभ दूर क्षितिज में
ज्यों आलिंगन करते हैं
मैं नदिया बन जाऊं तो
तुम भी सागर बन जाओ
वह सूरत दिखती उसको
जैसी मन में सोच रही
सब तुमको ईश्वर समझें
मेरे प्रियतम बन जाओ
देर भई अब तो कान्हा
मत इतना तुम…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 10, 2013 at 7:30pm — 18 Comments
देख तिरंगा लहराता
मन उठा, भ्रमर सा जागा है
पुलकित सूरज की किरनें
रंग तीन यह जो चमकें
इस मंद हवा की लहरों पर
मन झूम-झूमकर गाता है
सोंधी खुशबू माटी की
अलकें खिलतीं फूलों की
खेतों में लहराती फसलें
अब उमग-उमग मन जाता है
जीवन मेरा धन्य हुआ
भारत में जो जन्म हुआ
ये प्राण निछावर हैं इस पर
यह धरती अपनी माता है
.
बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on September 5, 2013 at 10:30pm — 32 Comments
करें हम
मान अब इतना
सजा लें
माथ पर बिन्दी।
बहे फिर
लहर कुछ ऐसी
बढ़े इस
विश्व में हिन्दी।।
गंग सी
पुण्य यह धारा
यमुन सा
रंग हर गहरा
सुबह की
सुखद बेला सी
धरे है
रूप यह हिन्दी।।
मधुरता
शब्द आखर में
सरसता
भाव भाषण में
रसों की
धार छलके तो
करे मन
तृप्त यह हिन्दी।।
तोड़कर
बॅंध दासता के
सभी…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 10:30pm — 32 Comments
पाँव मेरे वहीं पर ठिठक से गए
जिस जगह तुम गए थे मुझे छोड़कर
मैं वहीं पर खड़ा ये ही देखा किया
कैसे जाता है कोई मुँह मोड़कर
कितने वादे किए थे तुमने मगर
इन कलियों को खिलना कहाँ था लिखा
इन शाखों पर चिड़िया चहकती नहीं
कब पेड़ों से पतझड़ हुआ था विदा
अब बहारें उधर से गुजरती नहीं
जो राहें तुम तन्हा गए छोड़कर
अश्क तो आँख से अब छलकते नहीं
सब घटा बन तुम्हारी तरफ हैं गए
चाँदनी मेरी छत पर ठहरती…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on September 4, 2013 at 3:00pm — 25 Comments
हाँफता काँपता सा
हाथी भागा जा रहा था
चीखता हुआ
‘वो निकाल लेना चाहते हैं
मेरे दाँत
सजाएँगे उन्हें
अपने दीवानखाने में
मूर्तियाँ बनाकर
जैसे पेड़ों को छीलकर
बना डालीं फाइलें
और प्रेमपत्र।‘
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on September 3, 2013 at 6:00pm — 28 Comments
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