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कान्हा

एक पुरानी रचना को कुछ गेय बनाने का प्रयास किया है। देखें, कितना सफल रहा।

 

इन नयनों में आज प्रभू

आकर यूं तुम बस जाओ

जो कुछ भी देखूं मैं तो

एक तुम ही नजर आओ

 

धरती-नभ दूर क्षितिज में

ज्यों आलिंगन करते हैं

मैं नदिया बन जाऊं तो

तुम भी सागर बन जाओ

 

वह सूरत दिखती उसको

जैसी मन में सोच रही

सब तुमको ईश्वर समझें

मेरे प्रियतम बन जाओ

 

देर भई अब तो कान्हा

मत इतना तुम तड़पाओ

लुका-छिपी, खेल न खेलो

मन में मेरे बस जाओ

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

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Comment by बृजेश नीरज on September 13, 2013 at 11:19am

आदरणीय लाडलीवाल जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on September 13, 2013 at 11:19am

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 13, 2013 at 9:25am

सुन्दर गीत रचना के लिए हार्दिक बधाई श्री बृजेश नीरज भाई 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 12, 2013 at 11:53pm

धरती-नभ दूर क्षितिज में

ज्यों आलिंगन करते हैं

मैं नदिया बन जाऊं तो

तुम भी सागर बन जाओ..........बेहद सुंदर पंक्तिया

बधाई स्वीकारें आदरणीय बृजेश जी

Comment by बृजेश नीरज on September 12, 2013 at 9:31pm

आदरणीय सौरभ जी बहुमूल्य मार्गदर्शन के लिए आपका हार्दिक आभार! मैं उलझा हुआ था। आपके शब्दों ने गुत्थी सुलझा दी।

Comment by बृजेश नीरज on September 12, 2013 at 9:29pm

आदरणीया महिमा जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on September 12, 2013 at 9:28pm

आदरणीय अरुन भाई आपका हार्दिक आभार! आपकी आपत्ति सही है। प्रभू ठीक नहीं है। मेरा ध्यान इस तरफ गया नहीं।
सादर!

Comment by बृजेश नीरज on September 12, 2013 at 9:16pm

आदरणीय राम शिरोमणि जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on September 12, 2013 at 9:15pm

आदरणीय केवल जी आपका हार्दिक आभार! कृपया यह स्पष्ट करें कि आप द्वारा उल्लिखित बंद में कमी क्या है?

Comment by बृजेश नीरज on September 12, 2013 at 9:14pm

आदरणीय गिरिराज जी आपका हार्दिक आभार!

कृपया ध्यान दे...

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