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सालिक गणवीर's Blog – September 2020 Archive (5)

सूखी हुई है आज मगर इक नदी है तू...( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

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सूखी हुई है आज मगर इक नदी है तू

मैं जानता हूँ रेत के नीचे दबी है तू

मरना है एक दिन ये नई बात भी नहीं

जी लूँ ऐ ज़िंदगी तुझे जितनी बची है तू

आँखों को चुभ रही है अभी तेरी रौशनी

काँटा समझ रहा था मगर फुलझड़ी है तू

ऐ मौत कोई दूसरा दरवाजा खटखटा

आवाज़ मेरे दर पे ही क्यों दे रही है तू

हर बार ये लगा है तुझे जानता हूँ मैं

महसूस भी हुआ है कभी अजनबी है तू

आज़ाद हो रही…

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Added by सालिक गणवीर on September 28, 2020 at 10:00pm — 18 Comments

धुआँ उठता नहीं कुछ जल रहा है..( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

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धुआँ उठता नहीं कुछ जल रहा है

मुझे वो आग बन कर छल रहा है

पिछड़ जाउंँगा मैं ठहरा कहीं गर

ज़माना मुझसे आगे चल रहा है

बहुत ख़ुश था मैं तन्हाई में पर अब

ये सूनापन मुुझे क्यों खल रहा है

अंधेरे में उसे दिखता मैं कैसे

मगर फिर भी वो आँखें मल रहा है

बड़ा होकर दुखों में छाँव देगा

जो ये पौधा ख़ुशी का पल रहा है

निगल जाएगा मुझको भी अँधेरा

ये…

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Added by सालिक गणवीर on September 20, 2020 at 1:30pm — 7 Comments

कह रहे हैं जब सभी तुम भी कहो..( ग़ज़ल : सालिक गणवीर)

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कह रहे हैं जब सभी तुम भी कहो

आँख मूँदो आम को इमली कहो

बोलते हो झूठ लेकिन एक दिन

आइने के सामने सच ही कहो

कौन रोकेगा तुम्हें कहने से अब

तुम ज़हीनों को भी सौदाई कहो

कैसे कहता कह न पाया आज तक

दोस्तों को जब कहो बैरी कहो

वो नहीं कहता है तू भी कह नहीं

जब कहे हाँ तुम भी तब हाँ जी कहो

वो बने हैं एक दूजे के लिए

दोस्तों उनको दिया बाती कहो

कह नहीं पाया मैं…

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Added by सालिक गणवीर on September 17, 2020 at 8:30am — 8 Comments

जहाँ की नज़र में वो शैतान हैं..( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

122 122 122 12

जहाँ की नज़र में वो शैतान हैं
समझते हैं हम वो भी इंसान हैं

न हिंदू न यारो मुसलमान हैं
यहाँ सबसे पहले हम इंसान हैं

खु़दा कितने हैं ,कितने भगवान हैं
यही सोचकर लोग हैरान हैं

नहीं उनको हमसे महब्बत अगर
हमारे लिये क्योंं परेशान हैं

रिहा कर मुझे या तू क़ैदी बना

तेरे हैं क़फ़स तेरे ज़िंदान हैं

*मौलिक एवं अप्रकाशित.

Added by सालिक गणवीर on September 11, 2020 at 5:30pm — 11 Comments

क्या जाने किस जनम का सिला दे गया मुझे..( ग़ज़ल : सालिक गणवीर)

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क्या जाने किस जनम का सिला दे गया मुझे

था बेगुनाह फिर भी सज़ा दे गया मुझे

कैसे यक़ीन कीजिए ग़ैरों की बात का

समझा था जिसको अपना दगा दे गया मुझे

लम्बी हो उम्र मेरी दुआ मांँगता रहा

मरने की मुफ़्त में जो दवा दे गया मुझे

उसके इशारों को मैं समझ ही नहीं सका

गूंँगा था आदमी जो सदा दे गया मुझे

ग़ज़लें पुरानी ले गया आया था ख़्वाब में

इनके इवज में घाव नया दे गया मुझे

भीगा था जिस्म…

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Added by सालिक गणवीर on September 6, 2020 at 10:00pm — 18 Comments

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