221-1221-1221-122
बेवज़्ह मुझे रोने की आदत भी बहुत थी
पर मुझको रुलाने में सियासत भी बहुत थी (1)
माज़ी को भुला कर मियाँ अच्छा किया मैंने
रखने में उसे याद अज़ीयत भी बहुत थी (2)
मैंने भी बुझा दी थीं वो जलती हुई शम'एँ
कमरे में हवाओं की शरारत भी बहुत थी (3)
है मुझसे अदावत उन्हें अब हद से ज़ियादा
था और ज़माना वो महब्बत भी बहुत थी (4)
ज़ालिम की शिकायत भी करें तो करें किससे
हाकिम की उसी पर ही इनायत भी बहुत थी (5)
दिखने में बहुत सख़्त था पत्थर की तरह वो
फूलों सी मगर उनमें नज़ाक़त भी बहुत थी (6)
वैसे भी अलग होना था इक दिन हमें 'सालिक'
थे पास मगर हम में मसाफ़त भी बहुत थी (7)
* मौलिक एवं अप्रकाशित
©सालिक गणवीर
Comment
आदरणीय भाई बृजेश कुमार 'ब्रज' ' जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए आपका तह -ए -दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए आपका तह -ए -दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
आदरणीय Ravi Shukla जी
सादर अभिवादन
ग़ज़ल पर आपकी उपस्थिति और सराहना के लिए आपका तह -ए -दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
खूबसूरत ग़ज़ल और शानदार चर्चा के लिए आपका अभिनंदन है आदरणीय
आदरणीय सालिक गणवीर जी उम्दा ग़ज़ल कही आपने दिली मुबारक बाद कुबूल करें ग़ज़ल पर हुई चर्चा से काफी कुछ सीखने को मिला ।
जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
मतले के दोनों मिसरों में मेरे नज़दीक रब्त मौजूद है ।
'रखने में उसे याद अज़ीयत भी बहुत थी'
इस मिसरे में सहीह तलफ़्फ़ुज़ "अज़िय्यत" है, जनाब अमीर साहिब ठीक कहते हैं, इस तरह लिखें वज़्न तो एक ही रहेगा ।
'मैंने भी बुझा दी थीं वो जलती हुई शम'एँ'
इस मिसरे में 'भी' की जगह "ही" शब्द उचित होगा ।
'था और ज़माना वो महब्बत भी बहुत थी'
इस मिसरे में 'वो' शब्द भर्ती का है,यूँ कह सकते हैं:-
'पर एक जमाना था महब्बत भी बहुत थी'
'ज़ालिम की शिकायत भी करें तो करें किससे
हाकिम की उसी पर ही इनायत भी बहुत थी'
इस शैर को यूँ कहें:-
'ज़ालिम की शिकायत भला हम किस तरह करते
उस पर मियाँ हाकिम की इनायत भी बहुत थी'
'दिखने में बहुत सख़्त था पत्थर की तरह वो
फूलों सी मगर उनमें नज़ाक़त भी बहुत थी'
इस शैर में शुतर गुरबा दोष है,जनाब अमीर साहिब से सहमत हूँ, सानी मिसरे में 'उनमें' की जगह "उसमें" कर लें,दोष निकल जाएगा ।
'थे पास मगर हम में मसाफ़त भी बहुत थी'
इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर है, मगर चलेगा ।
//जनाब मैंने इसलिए कहा क्योंकि कबीर साहब इस मतले को पहले ही ,ओके कह चुके हैं अब बताइए?मैं क्या कहूँ?//
जनाब गणवीर जी, इस ग़ज़ल पर जनाब समर कबीर साहिब की कोई टिप्पणी या अनुमोदन अभी तक तो दृष्टिगोचर नहीं हुआ है, फिर भी मैं कहूँगा कि आपके ख़याल और नज़रिए की आप ख़ुद सबसे बहतर व्याख्या कर सकते हैं। हो सकता है समर कबीर साहिब ने फ़ोन पर हुई वार्ता में आपके इस मतले का अनुमोदन किया हो जबकि वो पूरी तरह से फोकस्ड न हों अन्यथा अभी तक वो इस ब्लॉग पोस्ट पर भी अपने अनुमोदन की टिप्पणी दे चुके होते। बहरहाल जनाब समर कबीर साहिब की बेशक़ीमती इस्लाह का इंतज़ार रहेगा। सादर।
आ. भाई सालिक गणवीर जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय 'अमीर' साहिब
आदाब
जनाब मैंने इसलिए कहा क्योंकि कबीर साहब इस मतले को पहले ही ,ओके कह चुके हैं. अब बताइए?मैं क्या कहूँ?ग़ुस्ताख़ी मुआफ़ हो मुहतरम.
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