2122 2122 212
फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
(बहरे रमल मुसद्दस महजूफ)
वृत्ति जग की क्लिष्ट सी होने लगी
सोच सारी लिजलिजी होने लगी
भीड़ है पर सब अकेले दिख रहे
भावनाओं में कमी होने लगी
चाहना में बजबजाती देह भर
व्यंजना यूँ प्रेम की होने लगी
धर्म के जब मायने बदले गए
नीति सारी आसुरी होने लगी
सूखती…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on February 28, 2014 at 10:31pm — 54 Comments
सामने से गुज़र रही है
भीड़
हाथों में हैं झंडे
केसरिया
हरे
शोर बढ़ता जा रहा है
झंडे
हथियार बन गए हैं
जमीन लाल हो रही है
यह अजीब बात है
झंडे चाहे जिस रंग के हों
जमीन लाल ही होती है
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on February 21, 2014 at 8:00pm — 12 Comments
पत्नी जिस बस से आ रही थीं, उसे घर के पास से ही होकर गुजरना था. रात का समय था. हल्की ठण्ड थी. मैंने हाफ़ स्वेटर पहना और टहलता हुआ उस मोड़ तक पहुँच गया, जहाँ पत्नी को उतरना था. बस के वहाँ पहुँचने में अभी कुछ समय शेष था. ठंडी हवा शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी इसलिए उससे बचने की खातिर मैं फुटपाथ के किनारे बनी दुकान के चबूतरे पर जा बैठा.
कुछ लोग वहीँ जमीन पर सो रहे थे. पास का व्यक्ति चादर ओढे, अभी जग रहा था.
मैंने उत्सुकता वश पूछा 'भैया, यहीं रोज सोते हो?’
'हाँ', वह…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on February 18, 2014 at 12:00am — 14 Comments
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