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धन्यवाद नीता जी ...
एक पुराने कथानक जिस पर अनेकों लघुकथाएँ बरसों से लिखी जाती रही है ,इसका एक फ्रेम तय हो चूका है और लघुकथाकार इसको बहुत ही सेफ प्लाट मानते है लेखन के तौर पर। हालाँकि आपकी लेखनी अच्छी है ,आप कथा में प्रवाह बहुत ही उम्दा लाती है , लेकिन मुझे इस बासी फ्रेम में सेट की गयी ये कथा , कथानक के यानि प्लाट के तौर पर ही पसंद नहीं आई।
जैसा की मैंने पिछले दिनों एक आलेख जिसमें "पद्मश्री रामनारायण उपाध्याय से मुकेश शर्मा की बातचीत" भी पढ़ी थी। उन्होंने मुकेश जी के इस प्रश्न पर भी ऐसी ही कुछ उत्तर दिए थे। जिसका अंश ऐसा कुछ है -----
" प्रश्न : पिछले पन्द्रह–बीस वर्षों में लिखी गई काफी लघुकथा ओं में अनेक कमजोरियाँ देखी जा सकती हैं। आप मुख्यत: इन लघुकथाओं में कौन सी कमजोरियाँ पाते हैं?
उत्तर : अब तक करीब दो हजार तीन सौ लघुकथाकारों की रचनाएँ यत्र तत्र देखने को मिली हैं। लेकिन अधिकांश लघुकथाकारों का कथ्य पुलिस तन्त्र, राजनीति और सेक्स के इर्द–गिर्द घूमकर समाप्त हो जाता है–ऐसा शायद इसलिए कि लघुकथा को सबसे सरल और कुछ लिखकर रातोंरात लेखक बन जाने का दिवा–स्वप्न पाल लेते हैं,जो लघुकथा विधा को सबसे ज्यादा अहत पहुँचा रहे हैं। लघुकथा जीवन जीने की प्रक्रिया प्रस्तुत करती है–लफ्फाजी नहीं। लघुकथा आम जीवन के सत्य को उजागर करती है–अपवाद को नहीं।"
इस सन्दर्भ को पेश करने का आशय यह है कि हम पिछले दिनों ही इससे सम्बंधित चर्चा इसी मंच पर भी कर चुके हैं लघुकथाकारों के सुरक्षित विषय लेखन को लेकर ,कहीं ऐसी कथाओं पर प्रोत्साहन , फिर से ऐसी ही कथाओं की भरमार पैदा न कर दे भविष्य में इसी मच पर, जिससे पीछा छुड़ाकर हाल ही में यहां पहुंचे है। सादर।
आदरणीया सीमाजी, आपकी इस प्रस्तुति पर पाठकों की मुखर प्रतिक्रियाएँ आयी हैं. निस्संदेह यह लघुकथा विधा के कई मानकों पर सफल दिखती है. परन्तु, एक् प्रश्न तो अवश्य ही उठता है, कि, माला की जवान हो चली बेटी मुक्ति को उस ग़लीज़ जगह पर ले कौन गया था ? माला की जवान हो चली बेटी को अपनी माँ के वर्तमान और ’व्यवसाय’ की जानकारी नहीं थी ? ऐसा संभव नहीं. फिर माला के सपने यदि टूट कर बिखरते दिख रहे हैं तो उस कामलोलुप अधेड़ का कितना दोष था ? यदि, मुक्ति स्वयं उस हालात के प्रति सहज हो चली हो तो क्या उसका दोष नहीं ?
किसी सफल प्रतीत होती रचना के कई पहलू होते हैं. एक-एक पहलू पर बात करना उचित होता है. इससे कई तथ्य सामने आकर खुल जाते हैं.
एक अत्यंत प्रभावी तथा बोल्ड प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई तथा अशेष शुभकामनाएँ. मैं आपकी रचनाधर्मिता से मुग्ध हूँ
शुभ-शुभ
"तीन संकल्प"
वो दौड़ते हुए पहुँचता उससे पहले ही उसके परिवार के एक सदस्य के सामने उसकी वो ही तलवार आ गयी, जिसे हाथ में लेते ही उसने पहला संकल्प तोड़ा था कि 'वो कभी किसी की भी बुराई नहीं सुनेगा'| वो पीछे से चिल्लाया, "रुक जाओ तुम्हें तो दूसरे धर्मों के लोगों को मारना है|" लेकिन तलवार के कान कहाँ होते हैं, उसने उसके परिवार के उस सदस्य की गर्दन काट दी|
वो फिर दूसरी तरफ दौड़ा, वहाँ भी उससे पहले उसी की एक बन्दूक पहुँच गयी थी, जिसे हाथ में लेकर उसने दूसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वो कभी भी बुराई की तरफ नहीं देखेगा'| बन्दूक के सामने आकर उसने कहा, "मेरी बात मानो, देखो मैं तुम्हारा मालिक हूँ..." लेकिन बन्दूक को कुछ कहाँ दिखाई देता है, और उसने उसके परिवार के दूसरे सदस्य के ऊपर गोलियां दाग दीं|
वो फिर तीसरी दिशा में दौड़ा, लेकिन उसी का आग उगलने वाला वही हथियार पहले से पहुँच चुका था, जिसके आने पर उसने अपना तीसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वो कभी किसी को बुरा नहीं कहेगा'| वो कुछ कहता उससे पहले ही हथियार चला और उसने उसके परिवार के तीसरे सदस्य को जला दिया|
और वो स्वयं चौथी दिशा में गिर पड़ा| उसने गिरे हुए ही देखा कि एक बूढ़ा आदमी दूर से धीरे-धीरे लाठी के सहारे चलता हुआ आ रहा था, गोल चश्मा पहने, बिना बालों का वो कृशकाय बूढ़ा उसका वही गुरु था जिसने उसे मुक्ति दिला कर ये तीनों संकल्प दिलाये थे|
उस गुरु के साथ तीन वानर थे, जिन्हें देखते ही सारे हथियार लुप्त हो गये|
और उसने देखा कि उसके गुरु उसे आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और उनकी लाठी में उसी का चेहरा झाँक रहा है, उसके मुंह से बरबस निकल गया 'हे राम!'|
कहते ही वो नींद से जाग गया|
(मौलिक व अप्रकाशित)
वाह !!! बुराई को त्यागने का संकल्प , समय के प्रवाह में , प्रभावहीन होकर ,उसी के खिलाफ हथियार बन उसके अपनों पर जा चले। एक घुटन भरा क्षण ·······स्वयं को गिरते हुए दिखाना , ग्लानि का एक महीन सा धागा , राम का स्वर और एक गहन संवेदनशील परिस्थिति , बखूबी स्थापित किये है बापू के बंदरों के साथ। इस गाम्भीर्य प्रस्तुति के लिए हृदयतल से अनंत बधाई आपको आदरणीय चंद्रेश जी ।
लघुकथा के इस प्रयास पर आपके अनुमोदन हेतु हृदय से आभारी हूँ आदरणीया कांता जी, आपने रचना विश्लेषण कर जो टिप्पणी की, उससे मेरा मनोबल बहुत बढ़ा है|
हार्दिक बधाई आदरणीय चंद्रेश जी!बहुत ही सशक्त और मन को झकझोर देने वाली रचना!बेहतरीन लघुकथा!
रचना पर आपके आशीर्वाद हेतु हृदय से आभारी हूँ आदरणीय तेजवीर सिंह जी सर, कृपया ऐसे ही स्नेह बनाये रखें|
लघुकथा के इस प्रयास को पसंद कर अपनी टिप्पणी द्वारा मेरा मनोबल बढ़ाने हेतु हृदय से आभारी हूँ आदरणीया नीता सैनी जी|
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