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प्रदत्त विषय पर लघुकथा रचते समय ध्यान रखने योग्य बातें

किसी भी प्रदत्त विषय, स्थिति अथवा चित्र पर रचनाकर्म करना कदाचित आसान कार्य नहीं होताI किन्तु इस तरह का प्रयोजन किसी विधा में क़लम आज़माई करने और उसमें निपुणता प्राप्त करने की दिशा में काफ़ी सहायक भी सिद्ध हो सकता हैI यदि लघुकथा के संबंध में बात की जाए तो गत लगभग डेढ़ वर्ष से “ओबीओ लाईव लघुकथा गोष्ठी” में हमारे लघुकथाकार बहुत उत्साह और चाव से प्रदत्त विषय पर स्तरीय लघुकथाएँ रच रहे हैंI बहुत से सदस्य तो सफलतापूर्वक रचनाएँ प्रस्तुत करने में अक्सर सफल रहे हैं, किन्तु यह भी देखा गया है कि कई बार विषय को लेकर हमारे कुछ सदस्यगण भ्रमित पाए गएI भविष्य में ऐसी कोई भ्रम की स्थिति न बने इस हेतु कुछ माननीय सदस्यों ने मुझे इस विषय पर लिखने का आग्रह भी कियाI मेरा यह लघु आलेख उसी आग्रह का परिणाम हैI अत: इस अवसर का लाभ उठाते हुए कुछ बातें साफ़ कर देना चाहता हूँI
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1. हमें लघुकथा कहते हुए सबसे पहले एक बात को ध्यान में रहना होगा कि प्रदत्त विषय एक “विषय” है, “शीर्षक” नहीं हैंI
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2. हमें प्रदत्त विषय के शाब्दिक अर्थ के साथ-साथ उसके समानार्थी/प्रयायवाची शब्दों को भी समझना होगाI क्या साज़िश और शतरंज इस मामले में एक जैसी भावना का प्रतिनिधित्व नहीं करते?
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3. एक बार प्रदत्त विषय का अर्थ साफ़ हो जाएँ तो उसके बाद उस शब्द के पीछे छुपे हुए अर्थों को ढूँढ़ना और समझना होगाI क्या “साज़िश” जैसे विषय पर चालसाज़ी, जालसाज़ी और पर्दे के पीछे की कुत्सिक मानसिकता पर बात नहीं की जा सकती?
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4. यह ज़रूरी नहीं कि प्रदत्त विषय को ही रचना का शीर्षक बनाया जाएI
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5. यह भी ज़रूरी नहीं कि प्रदत्त विषय में प्रयुक्त शब्द/शब्दों को लघुकथा में उपयोग किया ही जाएI बल्कि मज़ा तो इसी में है कि बिना इन शब्द/शब्दों का उपयोग किए लघुकथा कही जाएI
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6. लघुकथा इस तरह रची जाए कि प्रदत्त विषय के साथ पूर्ण न्याय हो सकेI उदाहरण के लिए यदि “दिल” विषय पर लघुकथा कहनी हो तो क्या हम केवल सीने में धडकने वाले दिल तक ही सीमित रहेंगे? हिम्मत और दिलेरी को भी तो दिल (दिल-गुर्दा) कहा जाता है, कोई बहुत प्यारा भी तो किसी का दिल हो सकता है, और किसी मूड को भी तो दिल कहा जा सकता है न? ख़ून, हत्या को भी कहते हैं, खानदानीपन को भी और वंश को भी, अब यह रचनाकार की समझ पर निर्भर है कि इसको कैसे उपयोग कर सकता हैI
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7. कई बार समानार्थी दिखने वाले शब्दों के मध्य एक महीन सा अंतर होता है, किन्तु उसके अर्थों में पूर्व और दक्षिण की दूरी हुआ करती हैI इसे समझे बग़ैर रचनाकर्म करने से अर्थ का अनर्थ होने की पूरी संभावना होती हैI शब्द “यारी” साधारण भाषा में मित्रता या प्रेम के लिए उपयोग किया जाता है, यदि इसको बिना सोचे समझे बरता जाए तो क्या बात बनेगी? हीर-रांझा या लैला-मजनूँ के प्रेम के संबंध में बात करते हुए तो यह ठीक है, किन्तु राधा-कृष्ण या मीरा-कान्हा की बात करते हुए इसे उपयोग में लाया जा सकता है?

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आपके मार्गदर्शन से लघुकथा की बारीकियों को समझने में आसानी होती है । धन्यवाद आदरणीय सर ।

हार्दिक आभार आ० कल्पना भट्ट जीI

हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी। आपका एक और बहुमूल्य तोहफ़ा, हम जैसे  नये लघुकथाकारों के लिये। यह एक सच्चाई है कि प्रदत्त शीर्षक या विषय पर लघुकथा लेखन में हाथ पैर फूल जाते हैं। बहुत मशकत्त करनी पड़ती है। आप का यह लेख निश्चित रूप से एक राहत भरी सामग्री है।आप के इस अनमोल मार्गदर्शन हेतु पुनः आभार।

उत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार आ० तेजवीर सिंह जीI 

आ.योगराज भाई जी आपने सिलसिलेवार जिस तरह उदाहरण सहित शब्दो को खोलकर अपने लेख मे रखा वो हमारे  रचनाकर्म के समय बहुत उपयोगी सिद्ध होगा,खासकर विषय और शिर्षक के मध्य का भेद.  ह्रदय्तल से आभारी   हूँ आपकी 

हार्दिक आभार नयना ताई.

ये बहुत ही सार्थक और ज्ञानवर्धक आलेख है ,जो बार बार पढा जाने लायक है,अधिकतर हम विषय को ही शीर्षक समझ लेते है ।पर अब लगता है संशय के बादल छँट गये है ।आपने उदाहरण के साथ सुंदर व्याख्या की है।आपके द्वारा दिखायी गई हर राह हमारा मार्गदर्शन करती है।शुक्रिया आपका बहुत बहुत आद०योगराज प्रभाकर जी ।

हार्दिक आभार आ० नीता कसार जीI

जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,आपका ये आलेख हम जैसे नव अभ्यासियों के लिये एक नायाब तोहफ़ा है, लघुकथा का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु शीर्षक ही होता है,इसे समझ लिया तो आगे का रास्ता बहुत आसान हो जाता है । इस मार्गदर्शन के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।

आ० समर कबीर साहिब

लघुकथा लेखन का एक और महत्वपूर्ण (किन्तु दुर्भाग्य से अति उपेक्षित) हिस्सा है "शीर्षक", वास्तव में शीर्षक लघुकथा का ही एक हिस्सा माना जाता है। शीर्षक का चुनाव यदि पूरी गंभीरता से किया जाये तो अक्सर शीर्षक ही पूरी कहानी बयान कर पाने में सफल हो जाता है या फिर लघुकथा ही अपने शीर्षक को सार्थक कर दिया करती है। जिस प्रकार किसी भवन का नामकरण बहुत सोच समझकर किया जाता है, लघुकथा का शीर्षक भी उसी प्रकार चुनना चाहिए। सुन्दर और सारगर्भित शीर्षक भी लघुकथा की सुंदरता में चार चाँद लगा देता है। (मेरे आलेख लघुकथा विधा: तेवर और कलेवर से) 

शीर्षक किसी भी रचना का प्रवेश द्वार होता हैI बहुत से पाठक केवल शीर्षक से प्रभावित होकर ही रचना पर उपस्थित होते हैं I "मजबूरी", "ग़रीबी", "दहेज़", "लुटेरे" आदि चलताऊ शीर्षक गंभीर पाठक को रचना से दूर रखते हैं I इसलिए लघुकथाकार को चाहिए कि अपनी रचना को एक प्रभावशाली शीर्षक दे I शीर्षक ऐसा हो जो पूरी लघुकथा का आईना हो, अथवा लघुकथा ही ऐसी हो जी शीर्षक को सार्थक करती हुई हो I (मेरे आलेख:"लघुकथाकारों के ध्यान योग्य कुछ महत्वपूर्ण बातें" में से)

मेरे मतानुसार लघुकथा का शीर्षक ऐसा नहीं होना चाहिए जिसे पढ़कर कथा उजागर न होती होI लघुकथा में "आश्चर्य तत्व" (Element of surprise) होना पाठक को अंत तक बांध कर रखने में सफल रहता है यह देखने के लिए कि आगे क्या होगाI आचार्य संजीव सलिल के मतानुसार, लघुकथा की रचना में शीर्षक भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है. शीर्षक ही पाठक के मन में कौतूहल उत्पन्न करता हैI लेकिन इसके विपरीत "सरकारी गुंडे" या "हाथी के दांत" आदि शीर्षक देखकर एक पाठक बिना पढ़े ही समझ जायेगा कि अन्दर क्या परोसा गया हैI  साथ ही ऐसे शीर्षक देने से भी बचना चाहिए जो शीर्षक न होकर मात्र नारा ही लगें, जैसे "नारी अब कमज़ोर नहीं", "पढ़ोगे तो बढ़ोगे", "बदल रहा है इंडिया" आदिI  

आदरणीय शीर्षक का चयन कर कथा को लिखना चाहिए ? या पहले कथा के प्लॉट को सोचकर । विषयधारित कथाओं पर लिखना किस हद्द तक होना चाहिये । सादर।

शीर्षक तो बाद में ही दिया जाता है आ० कल्पना भट्ट जी, कम से कम मैं तो ऐसा ही करता हूँI रचना विषयाधारित हो या न, उसी हद तक कलम आजमाई उचित है जहाँ तक गुणवत्ता से समझौता न करना पड़ेI 

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