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ओबीओ 'लाइव महोत्सव' गोल्डन जुबली अंक की सभी स्वीकृत रचनाओं का संकलन

आदरणीय सुधीजनो,


दिनांक -14 दिसम्बर 2014 को सम्पन्न हुए ओबीओ लाइव महा-उत्सव के गोल्डन जुबली अंक की समस्त स्वीकृत रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. सद्यः समाप्त हुए इस आयोजन हेतु आमंत्रित रचनाओं के लिए शीर्षक “भारत बनाम इण्डिया” था.

 

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस पूर्णतः सफल आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश यदि किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह ,गयी हो, वह अवश्य सूचित करें.

 

विशेष: जो प्रतिभागी अपनी रचनाओं में संशोधन प्रेषित करना चाहते हैं वो अपनी पूरी संशोधित रचना पुनः प्रेषित करें जिसे मूल रचना से प्रतिस्थापित कर दिया जाएगा 

सादर
डॉ. प्राची सिंह

मंच संचालिका

ओबीओ लाइव महा-उत्सव

******************************************************************************

क्रम संख्या

रचनाकार

स्वीकृत प्रविष्टि

 

 

 

1

आ० मिथिलेश वामनकर जी

समता के तराजू की हिला डंडियाँ बहुत

भारत पे आज हंस रहा है इंडिया बहुत

 

जाने लगा है हाशिये पे शान-ए-तिरंगा

उठने लगी है चारों तरफ झंडियाँ बहुत

 

लो भूख को बिके है गाँव और झुग्गियां

अब मुल्क बेचने की यहाँ मंडिया बहुत

 

समझाइए उन्हें कि वो भारत के लोग है

उठने लगी तो आज कटी मुंडियाँ बहुत

 

दुश्मन न परेशां हो हमे क़त्ल के लिए

अब लोग मारने को यहाँ ठंडियाँ बहुत

 

 

 

2

आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

प्रथम प्रस्तुति

भारतवर्ष में सांप बहुत हैं, इच्छाधारी नाग बहुत हैं।       

दो मुंह वाले सांप यहाँ हैं, पांच फनों के नाग यहाँ हैं।    

संस्कारों को दूषित करने, वातावरण प्रदूषित करने।       

अपने सपोले छोड़ गये थे, गोरे सांप जब लौट गये थे।    

जिन सांपों से घिरा है भारत, कहते हैं सब उसे इंडियन।        

इन जहरीले सांपो का है, विदेशी सांपो से गठबंधन।            

 

गुलाम वंश के सांप यहाँ, अंग्रेजी पूजक नाग यहाँ।   

जिसने लूटा भारत माँ को, उन्हीं सपोलों का राज यहाँ।  

हिंदी फिल्मों से कमाते हैं, हिंदी से नफरत करते हैं।    

हालीवुड जैसी है नग्नता, बालीवुड जिसे कहते हैं।     

ज़हरीले सब नाग यहाँ हैं, रंग बिरंगे सांप यहाँ हैं।      

बदन दिखाती नागिन भी हैं, सौदा करते नाग यहाँ हैं                               

लिपटे कुर्सी से सांप यहाँ, कुर्सी के ऊपर नाग यहाँ।                                               

गर्भ में कन्या डसने वाले, गौ की हत्या करने वाले।        

ब्याह बिना संग रहने वाले, खुद को सभ्य समझने वाले।                     किसम-किसम के नाग यहाँ हैं, ज़हरीली नागिन भी यहाँ हैं।    

आँख वालों को अंधा करते, गर्भाशय का धंधा करते।        

गुर्दे के व्यापारी नाग हैं, घूसखोर अधिकारी नाग हैं।                    

 

इंडिया में धन है काला, रोज वहीं होता घोटाला ।       

व्यभिचारी हर सांप यहाँ हैं, भ्रष्टाचारी नाग यहाँ हैं। 

महानगर में बड़े सांप हैं, बड़े-बड़े बंगलों में नाग हैं ।        

पहन मुकुट कुर्सी पे बैठते, लगा मुखौटे सांप घूमते ।        

देख इंडिया की खुशहाली, भारत की देखो बदहाली।                 

भूख अशिक्षा और बीमारी, उस पर अपसंस्कृति है भारी।     

धूर्त इंडियन की बदमाशी, समझ न पाये भारतवासी ।    

इंडियन को दूध पिलाकर, पाल रहे क्यों सर पे बिठाकर।             

दूध पियेंगे जहर उगलेंगे, कब तक हम इन को झेलेंगे।                    

अभी से हम बच्चों को बतायें, सांप बनें न कभी बनायें।  

भारत माँ के सपूतों जागो, सांप इंडियन मार भगा दो।                       

ना जाने कब वो दिन आये, जनता बैठी आस लगाये। 

 

द्वितीय प्रस्तुति

 

[1] ...

भ्रष्टाचारी खूब पनपते,

व्यभिचारी स्वच्छंद घूमते।

नेता अफसर में गठबंधन,                                   

हे सखि लगते सभी इंडियन।।

[2] ...

गरीबी, अशिक्षा, बीमारी,

है जिस्म बेचना लाचारी।

बद से बद्तर जिसकी हालत,

हे सखि कहते उसको भारत।।

[3] ...

गोरी माँ को गले लगाये,                               

अपनी माँ को दूर भगाये।                            

नग्न नृत्य औ दारु पार्टियाँ,

हे सखि कहते उसे इंडिया ।।

[4] ...

राष्ट्र स्वतंत्र है, भाषा नहीं,

विश्व में ऐसा देखा कहीं।  

अँग्रेजी की करें इबादत ,

हे सखि कहते उसको भारत।।

तृतीय प्रस्तुति ... 

इंडिया की अपसंस्कृति का, असर बुरा है भारत में।

चौबीस घंटे बलात्कार का, समाचार है भारत में॥

 

कौन सी जगह सुरक्षित है, कश्मीर से कन्या कुमारी तक।

वासनायें शयन कक्ष की, सड़क पे आ गई भारत में॥

 

बेटी किशोर हो या जवान, हर उम्र की लड़की पीड़ित है।

गुड़ियों के संग खेलने वाली, चीख रही है भारत में॥

 

हर गाँव गली चौराहे पर, अंग्रेजी माध्यम के स्कूल।

इंग्लैंड से ज़्यादा अब काले, अंग्रेज दिखेंगे भारत में॥

 

भ्रष्टाचार है, अत्याचार है, बलात्कार पर हाहाकार है।  

मैकाले की शिक्षा पद्धति, धूम मचा रही भारत में॥

*संशोधित 

 

 

 

3

आ० डॉ० विजय शंकर जी

प्रथम प्रस्तुति भारत बनाम इंडिया - एक नाम , एक पहचान

जग में भारत का नाम , जग में भारत का मान ,
सिंधु , हिन्द , इंडिका , इंडिया है जग में पहचान ,
वेद-संहिताएं , उपनिषद् , महाकाव्य-पुराण ,
गरिमा मयी जीवन-शैली, गौरवशाली अतीत महान |

हिमालय की ऊंचाई से हिन्द-महासागर की गहराई,
क्या पूरब , क्या पश्चिम , क्या उत्तर और दखिन ,
भारतीयता का दूर-दूर , सुदूर तक विस्तार ,
इंडो-चीन , इंडो-यूरोप , कम्बुज , चम्पा , मलय, जावा द्वीप-समूह ,
दूर दूर तक जल - थल पर फैला भारत का विस्तार ,
जय भारत , जय भारती , जय बृहत्तर भारत परिवार ॥

राम की उच्च मर्यादा है , कृष्ण का कर्म-योग-सन्देश ,
सत्य -अहिंसा, जीवन-रक्षा , महावीर, नानक का देश ,
चत्वारि आर्य सत्यानि , विश्व को गौतम का सन्देश ,
अशोक का जिओ और जीने दो का सहिष्णु अनुदेश ।
जय भारत ,जय भारती , जय भारत सन्देश।|

आकर्षण का क्षेत्र ,धन-सम्पदा से विपुल , भरा हुआ है ओज
मेगस्थनीज़ , ह्वेनसांग , अलबेरूनी , इब्नबतूता , वास्को-डी -गामा
करते रहे इस भारत की खोज ।
आक्रमणों का कैसा हुआ प्रहार ,
एक समय वह भी हुआ , औपनिवेशिक विस्तार
सब देख लिया, सब सह लिया, सबको किया स्वीकार
भारत कहो या इंडिया सहिष्णुता ही जीवन का आधार ,
तभी ये बात है कि हस्ती कभी मिटती नहीं हमारी,
जनतंत्र , जननी , जन्मभूमि, ही है कर्मभूमि हमारी ।
जय भारत ,जय भारती , भारत का हो कल्याण ,
अपने हाथों से भारत करे , विश्व का कल्याण ॥

 

द्वितीय प्रस्तुति

भारत एक नाम ,
इंडिया एक पहचान ,
दुनिया ने भारत को कितना जाना ,
भारत ने दुनिया को कितना जाना ,
हमने इक दूजे को कितना जाना ,
भारत को हमने कितना जाना ,
खुद को हमने कितना जाना ॥

जाना तो कितना पहचाना ,
जाना और पहचाना,तो क्यों
लगता सब कुछ बेगाना ,
क्यों लगता सब कुछ अंजाना ,
क्यों लगता, हमने तो सच में
कहीं कुछ भी नहीं जाना ॥

हर शब्द का अर्थ बदलना ,
जैसी सुविधा वैसा करना ,
नई , नई परिभाषायें रोज बनाना ,
एक पहचान ,बस ,नहीं बनाना ॥

भ्रम में जीना भी क्या जीना है ,
हर रोज ठगे जाना ,
धोखे पर धोखा खाना ,
टुकड़ों में बंटते जाना ,
इनको बांटों , उनको तोड़ो ,
सबको छोडो , हमको जोड़ो ,
हर टुकड़े की अपनी
रोज नई पहचान बताना ||

कर्म- योग का सन्देश यहां हैं
उसकी माला रोज है जपना ,
पूजा पर व्यक्ति-वाद की करना
मान कर्म का कभी न करना ॥
यहां नहीं विकास के आयाम हैं
सीढ़ियां हैं ,सीढ़ियों पर आदमी हैं,
चढ़ना है तो उसे अर्पण करना है ,
भेंट चढ़ाना है ,पूजा करना है ॥

फिर भी एक असमंजस में जीना ,
असमंजस में मर जाना ,
लेकिन कोई पहचान नहीं पाना ॥
अब बूझो , क्या लगता है
सब कुछ जाना पहचाना ,
या कुछ बेगाना , कुछ अंजाना ॥
किसको किसके बनाम बताना
आदमी का आदमी के
बनाम हो जाना ,
या हालात का हालात के
बनाम हो जाना |
कितना पराया ,
कितना बेगाना ,
कितना अंजाना ||
दुनिया ने हमको कितना जाना ,
जितना जाना , उतना ही ,
वैसा ही पहचाना ॥

 

 

 

4

आ० सौरभ पाण्डेय जी

इण्डिया बनाम भारत
==============
गिटपिटाने भर से 
इण्डियावाले कहलाने होते तुम 
तो कहला चुके होते. 

सिर

फिर सीने को छूने 
और फिर.. उसी चुटकी से

अगल-बगल कन्धो को 
बारी-बारी स्पर्श करने मात्र से इण्डिया का रस्ता खुलना होता 
तो सराण्डा* के जंगलों में वो कब का खुल चुका होता. 
या मैस्कलुस्कीगंज‌* आज यों तरस न रहा होता.. 
खुसूसी आदमजातों के लिए !
जहाँ अब ’उत्पाटित’ भारत घुस आया है
जो लुका-छिपी खेलता है 
बिना घोटूल* सजाये. 

विद्रूप विहँसने के संक्रामक रोग से आक्रान्त 
घनघोर अहमन्यता का नाम है इण्डिया.. 
जो बनावटी एम्बियेंस की अश-अश करती सीनरी 
कृत्रिम पार्कों की लक-दक करती ग्रीनरी.. 
उच्छृंखल मॉल के बेलौस कुँआरेपन 
और चिरयुवा चौपाटियों की रेत की सिलवटों में पलती है 
जहाँ रिरियाता हुआ भारत 
चिनियाबादाम* और चनाजोरगरम बेचता फिरता है ! 

 

 

 

5

आ० डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी

प्रथम प्रस्तुति

इसमें माटी के घर है 
कुछ फूस और छप्पर है
मैदान दूर तक फैले

भारत में ताल तलैय्या , भारत है अपनी मैय्या

 

इसमें माटी के घर हैं

कुछ फूस और छप्पर हैं

मैदान दूर तक फैले

रेहू-रूपा ऊसर है

है धर्म-वृषभ घर-घर में उजियारी-श्यामा गैया

 

सांकरी गली गलियारे

पनघट , बैठक, चौबारे

पालतू सभी पशु दिखते

गावों में द्वारे-द्वारे

है दिखती नहीं कही भी उलझन की भूल भुलैय्या

 

है बौर-गुच्छ सोंधियारे

अरु फूल खिले महुआरे

पपिहा रसाल पर बैठा

पीयू को सरस पुकारे

आँगन में चावल-दाने चुन-चुन खाती गौरैय्या

 

बेरों पर झोंझ बया के

दाने आहार मया के

कितने व्यवहार निराले

होते है यहाँ दया के

ढोलक को झूम बजाती आंधी –पानी गरगैय्या

 

है लता, गुल्म कुकरौंदे

ललछौहे मस्त करौंदे

कंटक बबूल में अटके

खग-शावक रम्य घरौंदे

सुख पाता सारा गांवरि, बरसे जल हा-हा हैय्या

 

निमुआरी गंध सुहानी

फूली है सरसों धानी

गेहूं की बाल खडी है

अब हवा हुयी फगुआनी

चुप पीपल, जामुन, बरगद ऊंचे लटकी खजुरैय्या

 

छपरे पर धोती मैली

कुछ की छत है खपरैली

उन पर लौकी-कद्दू की

हीरक -हरिताभा फ़ैली

कोई कहता ‘सुन दीदी’ कुछ कहते ‘राजा भैय्या’

 

जिसको कहते है साठा

गाँवों में है वह पाठा

रजनी में दूध-दुधौड़ी

दिन में पीता है माठा

अब भी गृह-तरणी का है सत्वर चपल खेवैय्या

 

आँगन में तुलसी-चौरा

रहता है बौरा-बौरा

गोबर की मूर्ति सजाकर

होती है पूजा गौरा

घंटा, घड़ियाल सभी है मंदिर में वंशि-बजैय्या

 

तीजी-कजरी की धुन है

भ्रमरादिक की गुन-गुन है

है कुसुमो की मादकता

बंसवारी की रुनझुन है

उत्ताल तरंगे भरकर उड़ता जाता पुरवैय्या

 

गोबर से लीपा अंगना

है रुचिर महावर रंगना

रह-रह कर है बज उठते

बधु की हाथों के कंगना

रातो को बजती डफली गाते है बड़े गवैय्या

 

ईंधन है उपले कंडे

नरकुल, कुश है सरकंडे

यदि जरा अलीक चले तो

पड़ते है माँ के डंडे

आती है तभी बचाने कहती दादी- ‘हा ! दैय्या’

 

है भूख और बेकारी

मायूसी है लाचारी

पग-पग दरिद्र की देवी

है धिक् जीवन से हारी

भव कैसे पार लगाये सिकता में डूबी नैय्या

 

कुछ खाते सूखी रोटी

कुछ पहने मस्त लंगोटी

कृश वपुष किसी का इतना

दिखती है बोटी-बोटी

कुछ तो विपन्न है इतने ऊपर वाला रखवैय्या

 

घर रोटी कपड़ा पानी

पाने में गर्क जवानी

है ग्राम-परिधि ही दुनिया

विस्तृत गृह सी वीरानी

हो किंशुक-पट सपनीले पर कौन यहाँ पहिरैय्या ?

 

भारत से निकलो बाहर

नर से बन जाओ नाहर

मोती सा मुखड़ा देखो

लगते है लोग जवाहर

सब इसे इण्डिया कहते यह अंगरेजी कनकैय्या

 

पक्के मकान पथरीले

शीशे उजले चमकीले

पत्थर दिल इनमे रहते

वंशज जिनके गर्वीले

उजला इनका सब तन है पर मैली इनकी शैय्या

 

मालो में माल अड़े है

बुत बन कुछ वही खड़े है

कुछ चले फिरते सुन्दर

कुछ छोटे और बड़े हैं

अंकल आंटी की बेटी इनके भी है लैजैय्या

 

धारे है बढ़िया स्वीटर

घर में आते है ट्यूटर

शिक्षा का सुर है बदला

अब शिक्षक है कम्प्यूटर

जिनको समझा था तितली वह सब है अब बर्रैय्या

 

मैगी, पिज्जा है माजा

बर्गर बिरयानी ताजा

थोड़ी सी इंग्लिश ले ले

फिर इन बाँहों में आजा

लिव-इन की परिणति क्या है यह कौन किसे समझैय्या

 

हीटर कूलर है ए सी

दारू भी मस्त विदेशी

पचतारे होटल बुक है

नित नव होती है पेशी

कोई इनका भी होता जादू-टोना करवैय्या

 

क्लब है डिस्को है पब है

है पॉप आइटम सब है

सब अंगरेजी के जातक

इनका रखवाला रब है

ऊपर वाला ही इनका है इस जग से उठ्वैय्या

 

कुंठा हिंसा नफरत है

इंडिया स्वार्थ में रत है

सब प्रकृति वर्जना करते

दहशत में यह कुदरत है

मै हाल कहाँ तक गाऊँ अब आओ कृष्ण कन्हैया

 

द्वितीय प्रस्तुति : अमर भारत

 

मानव

अगर ‘अशरफुल मखलूकात’ है

तब कोई तो उसमे

खास बात है

सवेरा अगर श्रेष्ठ है

तभी तो प्रभात है

 

कहते है मानव में

कुछ जीवन मूल्य होते है

वे अपनी नहीं

परायी विपदा पर रोते है

उनमे होती है

शर्म, हया, संकोच –शील

स्नेह-प्रेम ,ममता ,सौहार्द्र

वात्सल्य, करुणा, पूजा-अर्चा,

भक्ति, समर्पण

आदर-सम्मान

यही तो है संस्कृति के उपादान  

इन्ही से है यह भारत महान !

 

संस्कृति के

क्षरण से विगसती है सभ्यता

हाँ कह सकते हैं

जीवन में आती है भव्यता

भव्यता लंका में थी

सोने के महल सोने के कंगूरे 

लगे कल्पना को पर 

होगा आम आदमी का कभी

सोने का घर ?

 

स्वप्न था यथार्थ

दुर्ग था बंक

देवता थर्राते थे

रावण का लंक ?

सभ्यता विकास था

दारुण विलास था 

राजा था अभिमान अभिधान रावण

रावण- रुलाने वाला

यही परिणति है सभ्यता विकास की

इंद्र के अखाड़े की, खल अट्टहास की

भारत ने तोडा था

उस अभिमान को

गर्व मूर्तिमान को

 

भारत वही

अब इंडिया का रूप धर

चल रहा नयी-नयी सभ्यता की राह पर 

कल होंगी यहाँ भी

सोने की इमारते

चांदी की इबारतें

यहाँ भी होगा वही- कल

उन्मुक्त अट्टहास खल

नाचेंगी सड़क पर अप्सरा

मल्ल दिखलायेंगे त्वरा

 

तब

शर्म शर्माएगी

हया मुख छिपाएगी

निर्लज्ज होंगे तब

सारे शील -संकोच

क्रूर होगा प्रेम स्नेह और ममता

वात्सल्य करुणा की

नष्ट होगी क्षमता

भक्ति या प्रपत्ति की

विलीन  होगी समता

सम्मान-आदर का होगा उपहास

रावण फिर आएगा

करेगा विलास

चौदह भुवन में होगा अट्टहास

हे विकसित इण्डिया !

तब राम कहाँ पाओगे

जब अपने हाथो ही

अपने प्यारे भारत को

लंका बनाओगे ?

यह ‘इंडिया’ तो अभी

शुरुआत भर है

पर शायद राम का

भारत अमर है ! 

 

तृतीय प्रस्तुति

इक वे जो अंग्रेज थे ,  सुनिए उनकी शैलि   

घाटी तो थी सिन्धु की  कहते  इंडस वैलि  

कहते  इंडस वैलि   सिन्धु ना कहना आया

इंग्लिश बड़ी समृद्ध  सभी ने यह बतलाया 

कहते है गोपाल     देश का नाम बिगाड़ा

बना इंडिया देश     उसी का  झंडा गाडा       

 

भव्य भारती, भरत भी  भारत भास्वर भानु

यश प्रदीप्त था विश्व में जैसे दीप्त कृशानु

जैसे दीप्त कृशानु    ताप आतप सा फैला

अंग्रेजो ने किया     वात-आवरण  कसैला

कहते है गोपाल       इंडिया दूर भगाओ

हाँ, विकास का मंत्र वही   भारत में लाओ

 

 

 

6

आ० लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी

प्रथम प्रविष्टि : भारत माँ का नाम रहे

विश्व के प्राचीन देशों में, भारत का जाना नाम था  

रामराज्य भी था भारत में, इसका सबको भान था |

सोने की चिड़ियाँ माने जो, देख इधर रुझान किया

आँख गडाए मँडराते जो, आ भारत में व्यापार क्या |

 

अकबर महान हुए दुनिया में, नवरत्नों की पह्चान लिए

दूजा हुआ न चन्द्र गुप्ता सा, राजनीति के चाणक्य लिए

अशोक महान भी जाने जाते, जो जन जन के आदर्श बने

महाराणा सा देश भक्त नहीं, जो आन बान की शान बने

 

साधू संतों का देश कहे,  ऋषियों मुनियों का देश यही

दधिची से देहदानी हुए,  परशुराम से वंशधर भी यही |

वेद पुराण दिए जगत को, कर्म का गीता में सन्देश है

शिक्षा के केंद्र बने देश में, विश्व में नालंदा का नाम है |

 

भारत देश हुआ दुनिया में, जिंसने सबको  मान दिया

डच फ्रांसिस और पुर्तगाल से सबने डेरा डाल दिया |

अंगुली पकड़ते बढते जाते भारत भर में फैलाव लिया

भारत उनको साल रहा था, इंडिया इसको नाम दिया |

 

अतिथि देवों भवः समझते, शरणागत को मान दिया

शरागत माना जिनको भी उसने डसने का काम किया |

गरल तो रखते हम भी है, पर क्षमा का वरदान लिया

आखिर प्लासी के युद्ध ने, हमको भी संज्ञान दिया |

 

स्वतंत्रता की ठान मन में, झाँसी ने भी त्राण किया

मंगल पाण्डे तात्या टोपे, सबने जीवन होम किया |

गांधी जी ने किया अजूबा हिंसा का भी त्याग किया

बिन हथियार उठाएं देखो खदेड़ शत्रु को बाहर किया |

 

देश हमारा भारत ही है, माँ वसुधा का यह गौरव है

माने अब भी सभी विश्व में,खिले यही पर सौरभ है |

निर्मल जल और स्वच्छ रहे तो भारत की शान रहे

मस्तक उंचा रहे सदा ही, भारत माँ का नाम रहे |

 

द्वितीय प्रविष्टि: कुण्डलिया छंद

अखण्ड भारत एक था, जग को यह आभास

सोने की यह खान था, जग को था अहसास |

जग को था अहसास, तभी सब भारत आये

जमा रहे थे पाँव, अतिथि बनकर के छाये

लक्ष्मण करो उपाय, दुश्मन करे न शरारत

जब तक सूरज चाँद, रहे ये अखण्ड भारत ||

 (2)

सच्चाई जीते सदा, जय जय जय गणतंत्र

करते रक्षा देश की, जय जवान शुभ मन्त्र |

जय जवान शुभ मन्त्र, सजग सभी को करते  

इण्डिया न हो नाम, देश को भारत कहते |

कह लक्षण कविराय, देख कर प्रीत पराई |

संकट में दे साथ, उसी के दिल सच्चाई ||

(3)

पढ़ लिख कर बेकार है, भटक रहे दिन रैन,

मिले न कोई नौकरी,  घूम  रहे  बेचैन |

घूम रहे  बेचैन, बना तभी से इण्डिया

करले अब संकल्प,संजोएंगे पगडंडियाँ |

कह लक्ष्मण कविराय,सीखले कौशल जमकर

भारत पर हो गर्व, काम साधे पढलिख कर ||

 

 

 

7

आ० सुशील सरना जी

आजादी के पावन पर्व पर
तिरंगा हम फहराते हैं
मर मिटने को देश पे यारो 
लाखों कसमें खाते हैं
करके चन्द पुष्प समर्पित
वीरों की तस्वीरों पर
बस शीश झुका कर उनके आगे
अपना फर्ज़ निभाते हैं
आजादी के पावन पर्व पर.....

 
एक तरफ जवानों को देखो
जो देश की लाज बचाते हैं
और सीमा पर लड़ते-लड़ते
एक यादगार बन जाते हैं
एक तरफ यहाँ देश के अंदर
भ्रष्टाचार का तांडव है
बन के मसीहा देश के अंदर
देश को लूट के खाते हैं
आजादी के पावन पर्व पर ....

 

हैं गलियाँ अब भी वही
जहाँ पर आजादी के नारे थे
जन्म भूमि के लिए जहाँ पर
बहे खून के धारे थे
आती नहीं आवाजें अब क्यूं
रंग दे बसंती चोले की
कुर्सी के लिए अब जीते हैं
कुर्सी के लिए मर जाते हैं
आजादी के पावन पर्व पर..

 
तिरंगा हम फहराते हैं

कहने को हम आज़ाद हुए 
पर न जाने कैसी लाचारी है 
जाने क्यों भारत की धरती पर 
आज भी इण्डिया भारी है 
बैठ पीठ पर भारत की 
दो सौ साल तक दर्द दिया 
चले गए फिर भी अब तक 
क्यों उनकी संस्कृति से यारी है 
नग्न संस्कृति के आगे 
परिधानों की क्या बात करें 
इन परिधानों के आगे 
गांधी की खादी हारी है 
बोलचाल में देखो आज भी 
हिंदी पर अंग्रेज़ी भारी है 
भारत के कौने कौने पर 
आज भी इण्डिया भारी है 
ख़ून के हर कतरे पे जिनके 
था सिर्फ भारत का नाम लिखा 
क्यों इण्डिया के नश्तर से हमने 
उनके स्वप्न को छलनी कर डाला 
मर मिटने को देश पे यारो 
हम लाखों कसमें खाते हैं 
चलो भारत को भारत रहने की 
आज एक कसम और खाते हैं 
फिर आजादी के पावन पर्व पर
हम शान से तिरंगा फहराते हैं

 

 

 

8

आ० अशोक कुमार रक्ताले जी

प्रथम प्रस्तुति

भूल गए हम भारत माँ को, भूल गए वह छवि प्यारी ,

कहलाते हैं ग्रेट इन्डियन, दिल में लेकर चिंगारी |

 

खड़े किये हैं ऊँचे महले,

भूल गए पर अपनापन,

अंग्रेजों से किये विभाजित

स्वजनों में संपन्न निर्धन,

धन के बूते मन चलता है

धन से ही रिश्तेदारी,

कहलाते हैं ग्रेट इन्डियन.................

 

 

मात-पिता ही बोझ हो गए,

जिनसे पाया यह जीवन

दूर विदेशों में परजन से

जोड़ रहे हैं अपना मन,

 

भूल गए संस्कार सभ्यता

भारत की प्यारी सारी,

कहलाते हैं ग्रेट इन्डियन...............

 

दूसरी प्रस्तुति

 

लुप्त हो रहे गाँव अब, सिकुड़ रहे हैं खेत |
शहर उड़ाते फिर रहे, जब से बालू रेत ||

 

भारत में देखे नहीं, ऐसे कभी गुनाह |

दिखलाता है इंडिया, नर से नर का ब्याह ||

 

यंत्र-तंत्र संचार के, आए सबको रास |

जिनके कारण इण्डिया, हुआ बहुत ही ख़ास ||

 

स्वार्थ बढ़ा है और भी, दिखने लगी दरार |

रिश्तों की अब नित्य ही, धन से होती हार ||

 

नारी की पीड़ा बढ़ी, नहीं तनिक आराम |

दफ्तर का भी बोझ अब, घर का भी है काम ||

 

तृतीय प्रस्तुति

सपनों के आकाश सा, था यह भारत देश,

बनकर इसने इंडिया, बदला अपना वेश ||

बदला अपना वेश, रंग यह खूब अनोखा,

गैरों की है मौज, मिला अपनों को धोखा,

छीने शासन तंत्र, स्वयं ही हक़ अपनों के,

ढहा रहा है नित्य, महल सबके सपनो के ||

 

 

कह लो इसको इंडिया, या फिर कहो विकास,

सुख समृद्धि के साथ यह, बढ़ा रहा विश्वास ||

बढ़ा रहा विश्वास, सभी अपनों के मन में,

नयी-नयी अब सोच, पनपती है जन-जन में,

खुला आज हर द्वार, लाभ लो खुश अब रह लो,

भारत का नव रूप, इंडिया चाहे कह लो ||

 

 

 

9

आ० सचिन देव जी

भारत वरसिस इंडिया ,   में मत बांटो ये देश

भारत अब भी भारत है,  बस बदला है परिवेश

 

सिमटी हुई हैं भारत में,  पुरातन रीत विशेष 

आधुनिकता अनिवार्य है, ये इण्डिया का सन्देश

 

जप-तप मंत्रोच्चारण से , गुंजित भारत की शाम

पहुँच अंतरिक्ष शक्ति का , इण्डिया देता पैगाम

 

रचे बसे हैं भारत में , सारे रीत – रिवाज

आगे कदम बढ़ाना है, इण्डिया की आवाज

 

भारत अपनी जान है , बसते इसमें प्रान

इंडिया जो शाइनिंग करे, बढे भारत की शान

 

भारत और इंडिया जब मिलके कदम बढाये

इंडिया में संस्कार भरे, चमक भारत में आये

 

 

 

10

आ० राजेश कुमारी जी

सम्रद्ध शांत खुशहाल

देवभूमि

सर्वदा प्रकाश ज्ञान में लीन

संस्कारों की झिलमिल किरणों में

नहाती थी  स्वर्ण चिड़िया

कब  कैसे बाज लुटेरों की नजर में आई

कुतर  डाले उसके पर

तन से उसको बंदी बनाया  

पर क्या अंतरात्मा को छू पाए

मुक्ति के संघर्ष में विजयी हुई

खिसियाये लुटेरे  

जाहिल, जानवर नाम का  संक्रमित बीज रोप गए

उस देव भूमि में  

जो आज तक झेल रही है

उसकी जहरीली हवा को   

क्यूँ आखिर क्यूँ ??

 

 

 

11

आ० मनोज कुमार श्रीवास्तव जी

प्रथम प्रस्तुति

भारत के सम्मान के, हकदार पैदा हो गये,
माँ ने जन्मे बेटे थे, धिक्कार पैदा हो गये,
इंडिया की ओट में षडयंत्र चारो ओर है,
संस्कृति सहमा हुआ, चरित्र भी कमजोर है,
परतंत्रता के वेश में, जो जुल्म था सो जुल्म था,
आंग्ल के परिवेश में, जो इल्म था वो इल्म था,
पर आज सब आजाद है, जुल्म है किसका भला,
खुद ही सब आबाद हैं, खुद ही का है ये काफिला,
फिर गैरों के खैरात पर, पलने का क्या काम है,
फिरंगियों की राह पर चलने का क्या काम है,
हिन्दुस्तानी हैं अगर तो जज्बा ये दिखलाना है,
इंडियन को बिसार दो भारतीय कहलाना है।

 

द्वितीय प्रस्तुति

इस मिट्टी का कण-कण नस में,
लहू के शक्ल में बहता है,
जुबां से ‘इंडिया‘ भले ही निकले,
‘भारत‘ दिल में रहता है,
पाश्चात्य की बातें छोड़ें,
स्वदेश गुणगान करें,
देेश हमारा संस्कृति हमारी,
फिर क्यों न अभिमान करें,
अगर कहीं इतिहास है दोषी,
तो भी हम स्वीकार करें,
आपस में हम लड़ें न झगड़ें,
वर्तमान में सुधार करें,
चिंतन हो और मंथन हो,
हर व्यक्ति की बुद्धि में,
ऊर्जा हो सफल हमारी,
देश की शोभा-समृद्धि में,
थोपा हो जिसने भी इंडिया,
उसको ये सिखलाना है,
भारत तो बस भारत था,
भारत ही दिखलाना है।

 

 

 

12

आ० रमेश कुमार चौहान जी

*प्रथम प्रस्तुति: चौपाई*
देव भूमि गांवों का भारत । भरत वंश का गौरव धारक 
इंडि़या बिम्ब अंग्रेजो का । स्वाभिमान छिने पूर्वजों का

भौतिकता में हम फंसे हैं । गांव छोड़ कर शहर बसे हैं
अपना दामन मैला लगता । दाग शहर का कुछ ना दिखता

ढोल दूर के मोहित करते। निज बाॅंसुरी बेसुरा लगते
कोयल पर कौआ भारी है । गरल सुधा सम अब प्यारी है

दिवाने भोर के रात जगे  । उल्लू भी अब हैं ठगे-ठगे 
पूरब का सूरज भटका है । पश्चिम में जैसे अटका है

दादा परदादा भारत वंशी । बेटा पोता विसरे बंशी
गुलाम हो वो आजाद रहे । हम अंग्रेजो के चरण गहे

इंडि़या लगे  अब तो भारी । सिसक रही संस्कृती हमारी
बने कुरीति रीति हमारे । आंग्ल हिन्द पर डोरा डाले

इंडि़या का कैदी भारत । घर-घर में छिड़ा महाभारत
रिश्ते नाते छूट रहे हैं । लोक लाज अब टूट रहे हैं

 

द्वितीय प्रस्तुति

मेरा भारत
इंडिया में खो गया
ढूंढ.ते रहे
इंडियन होकर
अपने भारत को

 

*तृतीय प्रस्तुति

छोड़े झगड़ा नाम का, दोनो ही है एक ।
भारत हो या इंडि़या, लगे हमें तो नेक ।।

संस्कृति वाहक एक है, विकास वाहक एक ।
दोनों पहिये देश के, साथ चलें हैं नेक ।।

भारत माॅ के लाल हम, करेंगे एक काम ।
रचे सुगढ़ हम इंडि़या, जग का सुंदर धाम ।।

दीन हीन सब तृप्त हो, सुख मय हो दिन रैन ।
भेद भाव अब खत्म हो, मिले सभी को चैन ।।

*संशोधित 

 

 

 

13

आ० गिरिराज भंडारी जी

*ज़हरीली खटाई इंडिया की

पाता हूँ मैं हर उस बर्तन में

जिसमें भारत की काली गाय का मीठा दूध होता था / होना चाहिये  

किसी में कम किसी में ज्यादा , किसी में बहुत ज्यादा

कभी डाली गई खटाई साजिशों से

कभी सुनहरे सपनें दिखा ,

चकाचौंध में फँस कर कुछ ने स्वयं भी डलवा ली ख़टाई

 

पूरे भरे , मीठा दूध अस्वीकार कर रहे हैं

कम भरे खाली होने को राजी नहीं

ऊपर से डाला गया दूध व्यर्थ ज़हरीली दही बन , औरों के लिये जामन का काम कर रही है

और कई बरतन खराब कर रही है

चका चौन्ध मे फँसे असमंजस में हैं , पहले वाला दूध सही था या अब दही

ड्राइंगरूम तक घुस कर , टीव्ही के सहारे

सुना है अब गाय-बैलों  की नस्ल ख़राब करने की साजिश है

ताकि बछ्ड़े ही ख़टाई प्रेमी निकलें , गायें दूध की जगह सीधे ज़हरीली दही दें

हो भी चुकी हैं कुछ नस्ल खराब ,

 

खटाई को पूरी तरह अस्वीकार किये कुछ दूध प्रेमी पगलाये घूम रहे हैं

नुक्सान गिनाते , ज़हरीली ख़टाई के

 

वास्तविकता यही है ,

कौन किसे समझाये ,

हम सबके अन्दर भी थोड़ी थोड़ी शामिल है ज़हर की खटाई  

जो फाड़ कर रख देती है ,

भारत की काली गाय का मीठा दूध 

*संशोधित 

 

 

 

14

आ० अरुण कुमार निगम जी

बाबूजी जब डैड हो गये , माता हो गई माम

पूरब में उस दौर से छाई,  एक साँवली शाम

अब गुरुकुल गुरु-शिष्य कहाँ, बस कागज के अनुबंध

सर-मैडम, अंकल-आंटी में, सरसे कहाँ सुगंध

कहाँ कबड्डी, गिल्ली-डंडा, छुआ छुऔवल खेल

कहाँ अखाड़े कंदुक-क्रीड़ा, छुक-छुक करती रेल

खेल फिरंगी अब क्रिकेट का,दिखलाता है शान

समय-शक्ति का नाश कर रहा,फिर भी पाता मान

एबीसीडी  सिर चढ बैठी , पश्चिम वाली डॉल

असहाय - सी अआइई ,  भटक रही बदहाल

गोरे - मैकाले से आहत , संस्कार  हैं  मौन

भारत को इण्डिया कर गया,खुद से पूछूँ ,कौन ?

 

 

 

15

आ० जवाहर लाल सिंह जी

होते है बलात्कार इण्डिया में,

भारत में नहीं !

कहा जिस महोदय ने,

वे देखते नहीं

गांव के खेतों में,

खलिहानों में, गलियों में,

मचानों पर, दुकानों पर,

घरों में, कोह्बरों में

किस तरह तार-तार होती है

महिलाओं की अस्मत!

किस तरह बच्चियां

मसल दी जाती हैं

मासूम कली की तरह

फूल बनने से पहले ही.

कैसे जला दी जाती हैं

नवबधुयें,

दहेज़ के अंगारों में

ये झगड़ा अब

होना चाहिए ख़त्म

भारत और इण्डिया का

एक देश है मेरा

लोक गीत और दांडिया का

 

 

 

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आदरणीया प्राची जी , एक और सफल आयोजन के लिये और संकलन के लिये हार्दिक  बधाइयाँ । मेरी रचना को निम्न से प्रतिस्थापित करने की कृपा करें ---

ज़हरीली खटाई इंडिया की

पाता हूँ मैं हर उस बर्तन में

जिसमें भारत की काली गाय का मीठा दूध होता था / होना चाहिये  

किसी में कम किसी में ज्यादा , किसी में बहुत ज्यादा

कभी डाली गई खटाई साजिशों से

कभी सुनहरे सपनें दिखा ,

चकाचौंध में फँस कर कुछ ने स्वयं भी डलवा ली ख़टाई

 

पूरे भरे , मीठा दूध अस्वीकार कर रहे हैं

कम भरे खाली होने को राजी नहीं

ऊपर से डाला गया दूध व्यर्थ ज़हरीली दही बन , औरों के लिये जामन का काम कर रही है

और कई बरतन खराब कर रही है

चका चौन्ध मे फँसे असमंजस में हैं , पहले वाला दूध सही था या अब दही

ड्राइंगरूम तक घुस कर , टीव्ही के सहारे

सुना है अब गाय-बैलों  की नस्ल ख़राब करने की साजिश है

ताकि बछ्ड़े ही ख़टाई प्रेमी निकलें , गायें दूध की जगह सीधे ज़हरीली दही दें

हो भी चुकी हैं कुछ नस्ल खराब ,

 

खटाई को पूरी तरह अस्वीकार किये कुछ दूध प्रेमी पगलाये घूम रहे हैं

नुक्सान गिनाते , ज़हरीली ख़टाई के

 

वास्तविकता यही है ,

कौन किसे समझाये ,

हम सबके अन्दर भी थोड़ी थोड़ी शामिल है ज़हर की खटाई  

जो फाड़ कर रख देती है ,

भारत की काली गाय का मीठा दूध 

*********************************   सादर निवेदित

यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित 

अदरणीया प्राचीजी, संकलन कार्य के लिए हार्दिक धन्यवाद.

आयोजन पश्चात प्रस्तुत हुई रचनाओं का संकलन उन रचनाओं को समुच्चय में उपलब्ध कराने के साथ-साथ पाठकों और रचनाकारों के लिए सार्थक विमर्श के अवसर भी उपलब्ध कराने का कारण होना चाहिये. आयोजन वस्तुतः कार्यशाला के प्रारूप की तरह मान्य है तो संकलन का प्रस्तुतीकरण विमर्श के लिए मंच हो. आदरणीय गिरिराजभाईजी ने इस तरफ़ एक प्रयास अवश्य किया है. अन्यथा, अभी तो कई रचनाकार संकलित हुई रचनाओं में अपनी रचना तक को देखने नहीं आते. विश्वास है, धीरे-धीरे इस ओर भी ध्यान जायेगा.
आप अपनी पारिवारिक व्यस्तता के कारण सद्यः समाप्त आयोजन में वांछित समय नहीं दे पायीं, किन्तु आपका जुड़ाव सदा बना रहा, इसका भान हमें है.
सादर

आज फिर से संकलन को पूरा पढ़ा. इस संकलन में बहुत उकृष्ट रचनाएँ प्रस्तुत हुई जिनमें कुछ रचनाओं और कुछ पंक्तियों ने एक पाठक की हैसियत से मेरा मन मोह लिया. इस संकलन के आने के बाद उन कुछ रचनाओं और कुछ पंक्तियों को एक बार फिर पढने का मन हुआ तो सोचा साथ-साथ उन्हें चिन्हित भी करता चलूँ. अपनी पसंद आप लोगो भी शेयर कर रहा हूँ. एक समालोचक की न मेरी दृष्टि है और न ही समझ..... इसलिए यह केवल एक पाठक की अभिव्यक्ति है जैसे –

आ० अरुण कुमार निगम जी की पूरी रचना जैसे एक सांस में पढ़ गया और मर्म के साथ साथ लयात्मकता भी है आपकी पूरी रचना में –

बाबूजी जब डैड हो गये , माता हो गई माम

पूरब में उस दौर से छाई,  एक साँवली शाम

अब गुरुकुल गुरु-शिष्य कहाँ, बस कागज के अनुबंध

सर-मैडम, अंकल-आंटी में, सरसे कहाँ सुगंध

कहाँ कबड्डी, गिल्ली-डंडा, छुआ छुऔवल खेल

कहाँ अखाड़े कंदुक-क्रीड़ा, छुक-छुक करती रेल

खेल फिरंगी अब क्रिकेट का,दिखलाता है शान

समय-शक्ति का नाश कर रहा,फिर भी पाता मान

एबीसीडी  सिर चढ बैठी , पश्चिम वाली डॉल

असहाय - सी अआइई ,  भटक रही बदहाल

गोरे - मैकाले से आहत , संस्कार  हैं  मौन

भारत को इण्डिया कर गया,खुद से पूछूँ ,कौन ?

 

आ० गिरिराज भंडारी जी की रचना में गज़ब के प्रतीक और कविता का मर्म जिसने प्रभावित किया खासकर इन पंक्तियों में

 

वास्तविकता यही है ,

कौन किसे समझाये ,

हम सबके अन्दर भी थोड़ी थोड़ी शामिल है ज़हर की खटाई  

जो फाड़ कर रख देती है ,

भारत की काली गाय का मीठा दूध 

 

आ० रमेश कुमार चौहान जी की चौपाइयों में ये चौपाई –

 

दिवाने भोर के रात जगे  ।

उल्लू भी अब हैं ठगे-ठगे 
पूरब का सूरज भटका है ।

पश्चिम में जैसे अटका है

 

आ. मनोज कुमार श्रीवास्तव जी की कविता की ये पंक्तियाँ –

 

इस मिट्टी का कण-कण नस में,
लहू के शक्ल में बहता है,
जुबां से ‘इंडिया‘ भले ही निकले,
‘भारत‘ दिल में रहता है,

 

 

 आ० राजेश कुमारी जी की कविता का मर्म इन पंक्तियों में गहरे तक असर छोड़ गया –

जाहिल, जानवर नाम का  संक्रमित बीज रोप गए

उस देव भूमि में  

जो आज तक झेल रही है

उसकी जहरीली हवा को   

क्यूँ आखिर क्यूँ ??

 

आ० अशोक कुमार रक्ताले जी की प्रथम प्रस्तुति की ये मनभावन पंक्तियाँ –

भूल गए हम भारत माँ को, भूल गए वह छवि प्यारी ,

कहलाते हैं ग्रेट इन्डियन, दिल में लेकर चिंगारी |

 

खड़े किये हैं ऊँचे महले,

भूल गए पर अपनापन,

अंग्रेजों से किये विभाजित

स्वजनों में संपन्न निर्धन,

धन के बूते मन चलता है

धन से ही रिश्तेदारी,

कहलाते हैं ग्रेट इन्डियन.  दिल में लेकर चिंगारी |

 

आ० सुशील सरना जी की ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी -

 

बोलचाल में देखो आज भी 
हिंदी पर अंग्रेज़ी भारी है 
भारत के कौने कौने पर 
आज भी इण्डिया भारी है 
ख़ून के हर कतरे पे जिनके 
था सिर्फ भारत का नाम लिखा 
क्यों इण्डिया के नश्तर से हमने 
उनके स्वप्न को छलनी कर डाला 
मर मिटने को देश पे यारो 
हम लाखों कसमें खाते हैं 

 

आ० लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी की द्वितीय प्रस्तुति कुंडलियों में सभी कमाल है, यथा-

 

अखण्ड भारत एक था, जग को यह आभास

सोने की यह खान था, जग को था अहसास |

जग को था अहसास, तभी सब भारत आये

जमा रहे थे पाँव, अतिथि बनकर के छाये

लक्ष्मण करो उपाय, दुश्मन करे न शरारत

जब तक सूरज चाँद, रहे ये अखण्ड भारत ||

 

आ० डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी की प्रथम प्रस्तुति एक लम्बी और सुन्दर कविता जिसकी ये पंक्तियाँ  बहुत सुन्दर है –

 

कुछ खाते सूखी रोटी

कुछ पहने मस्त लंगोटी

कृश वपुष किसी का इतना

दिखती है बोटी-बोटी

कुछ तो विपन्न है इतने ऊपर वाला रखवैय्या

 

आ० सौरभ पाण्डेय जी की कलम से निकली ये उत्कृष्ट सर्जना –

 

गिटपिटाने भर से 
इण्डियावाले कहलाने होते तुम 
तो कहला चुके होते. 

सिर

फिर सीने को छूने 
और फिर.. उसी चुटकी से

अगल-बगल कन्धो को 
बारी-बारी स्पर्श करने मात्र से इण्डिया का रस्ता खुलना होता 
तो सराण्डा* के जंगलों में वो कब का खुल चुका होता. 

 

आ० डॉ० विजय शंकर जी की प्रथम प्रस्तुति में भारत का एतिहासिक गौरव गान करती कविता की ये सुन्दर पंक्तियाँ –

 

आकर्षण का क्षेत्र ,धन-सम्पदा से विपुल , भरा हुआ है ओज
मेगस्थनीज़ , ह्वेनसांग , अलबेरूनी , इब्नबतूता , वास्को-डी -गामा
करते रहे इस भारत की खोज ।
आक्रमणों का कैसा हुआ प्रहार ,
एक समय वह भी हुआ , औपनिवेशिक विस्तार
सब देख लिया, सब सह लिया, सबको किया स्वीकार
भारत कहो या इंडिया सहिष्णुता ही जीवन का आधार ,

आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी की द्वितीय प्रस्तुति कह-मुकरियों में ये बेहतरीन मुकरी –

 

गरीबी, अशिक्षा, बीमारी,

है जिस्म बेचना लाचारी।

बद से बद्तर जिसकी हालत,

हे सखि कहते उसको भारत।।

 

मेरे द्वारा प्रस्तुत तुकबंदी, ग़ज़ल के पैमाने पर पूरी तरह एक खारिज रचना थी फिर एक तुकबंदी ठीक लगी जिसका कभी और किसी रचना में प्रयोग करूंगा-

 

जाने लगा है हाशिये पे शान-ए-तिरंगा

उठने लगी है चारों तरफ झंडियाँ बहुत

 

 बहरहाल किसी रचना में गलतियाँ एक-दो हो, तो सुधार भी लूं ये तो पूरी रचना ही कोरी तुकबंदी बन गई इसलिए बिना कोई संशोधन के आगे के लिए एक सीख मानकर इसे जस की तस छोड़ रहा हूँ.

सादर 

 

दि. 13 से 18 दिसंबर तो मै देहली/गाजियाबाद में होने के कारण सभी रचनाए नहीं पढ़ पाया, जो अब पढ़कर आनंद की अनुभूति  हो

रही है | रचनाओं के संकलन का इसीलिए बड़ा महत्व है | मैं प्रथम दिन ही दोने रचनाए पोस्ट कर रात्री को निकल गया था | मेरी

दूसरी रचना कुण्डलिया के प्रथम छंद की प्रथम तीन पंक्तियाँ निम्न प्रकार संशोधित कर कृतार्थ करे -

भारत  एक अखण्ड था, जग को यह आभास

था सोने की खान यह,जग को था विश्वास |

जग को था विश्वास, तभी सब भारत आये 

तीसरे छंद की ये पंक्तियाँ  में निम्न  प्रकार शंशोधन प्रस्तावित है -

घूम रहे  बेचैन, बना तभी से इण्डिया  -    घूम रहे बेचैन, तब इण्डिया कहलाए  

करले अब संकल्प,संजोएंगे पगडंडियाँ |-  करले अब संकल्प, त्याग से इसे सँजोए 

सभी रचना संकलित कर उपलब्ध कराने  के लिए  आपका  अतिशय  आभार | जिन रच्नाकारों की रचनाए पढ़ी उन सभी को हार्दिक  बधाई 

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