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रिश्तों की यही परिभाषा रह गयी है कि मैं एक लूंगी तो वो तुमसे चार ले लेगा, इसलिये रिश्ते खत्म कर देते हैं| समाज वास्तव में मानवीय मूल्यों के स्थान पर अर्थवादी हो गया है| बहुत ही बढ़िया विषय का चुनाव किया है आदरणीय विनोद जी सर, इस रचना के लिये बधाई स्वीकार करें|
हमारे समाज में ये जो आयोज न और त्योहारों में लेने देने की रीती है ,इसके चलते कई रिश्ते दब जाते हैं ,इसी कशमकश को बयान करती एक सफल लघु कथा ,बधाई आपको आ० विनोद जी
रिश्तों में भी भाव मोल लेन देन का केलकुलेशन ...यही सब त्योहारों की मर्यादाओं को खटास में डाल रहा है मेरे विचार से भी ये लेना देना बंद होना चाहिए बिना किसी स्वार्थ ये त्यौहार मनाये जाएँ तो बात ही अलग होगी किन्तु इस से उलट ही हो रहा है ,,आज कल तो बाजार में भी सोने चाँदी की राखियाँ आने लगी हैं पूरी तरह व्यावसायिक होता जा रहा है त्यौहार सच्चे रिश्ते रह कहाँ गए |
बहुत अच्छे सामयिक विषय पर लिखा है आपने विनोद जी ,दिल से बधाई लीजिये |
रिश्तों की बदलती परिभाषा को सुन्दरता से परिभाषित किया है भाई विनोद खनगवाल जी, बधाई प्रेषित है I
आदरणीय विनोद जी, रिश्तों की परिभाषा शीर्षक को सार्थक करती बहुत ही शानदार लघुकथा हुई है. इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई
रिश्तों को आजके अर्थप्रधान वातावरण में क्या रूप मिल गया है ! आदरणीय विनोदजी, इस संवेदना प्रधान प्रस्तुति केलिए हार्दिक बधाइयाँ ..
"परिभाषा"
"बाबू साहब , हम अंधे भिखमंगे पति - पत्नी बरसों का ये बस्ती हमारी , अब हम बेघर कहॉ जाये ! "- उसकी आंखे भरी हुई थी ।
"अरे तो वह झोपडी सरकारी जमीन पर थी सरकार ने लेली । "
"ठीक है साहब , जमीन सरकारी थी , मगर झोपडी तो सरकारी नही थी , वो तो मेरी मेहनत की थी । इस गरीब की झोपडी ही लौटा दिजीये । गरीबो के लिए भी तो बहुत सी सहायता होगी ना ।"
"है ना, मगर तुम गरीब की परिभाषा में भी नही आते हो । "
"गरीब की परिभाषा वो क्या है ? "
"अरे नियम की पुस्तक में साफ साफ लिखा है कि जिस परिवार की आय....... रूपये से कम होगी वही गरीब माना जायेगा । "
"मगर बेटा हमारी तो आय कुछ है ही नही । "
"वही तो नियम में साफ लिखा है कि आय कम होना चाहिये , ये नही लिखा कि आय कुछ नहीं होनी चाहिए समझे आप ! गरीब की परिभाषा में नही है तो सरकारी सहायता नही मिल सकती ! ""
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